Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म और दर्शन
तात्पर्य यह है कि शुन्यवाद में अन्तों की अस्वीकृति और निर्विकल्प भाव का स्वीकार है। जबकि स्याद्वाद में इससे उलटा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्याद्वादी को तत्तद्विकल्पों के दोष का ज्ञान नहीं है । एकान्त में रहा हुआ दोप समान रूप से शून्यवादी और स्याद्वादी देखते हैं। किन्तु दोष को देखकर अन्त का केवल अस्वीकार करना यह स्याद्वादी को मंजूर नहीं। यह उस अन्त के गुणों को भी देखता है और उसी दृष्टि से उसका स्वीकार भी करता है। निरपेक्ष अन्त को निरस्त करके वह सापेक्ष अन्त का स्वीकार करता है। इस प्रक्रिया को विशद रूप से नयचक्र में रखा गया है।
तर्क दुधारी तलवार है, यह खंडन भी करता है और मंडन भी। आचार्य नागार्जुन ने उसका उपयोग केवल खंडन में ही किया है। दार्शनिक विचारणा के अपने समय तक के प्रमेय और प्रमाण सम्बन्धी मान्यताओं का तर्क के बल से जमकर खंडन ही खंडन किया और शून्यवाद की स्थापना की। जव कि नयचक्र में ऐसी योजना की कि खंडन भी हो और मंडन भी। उसने अपने समय तक के प्रसिद्ध सभी वादों की क्रम से स्थापना की और खंडन भी किया। पूर्व-पूर्ववाद अपने मत का समर्थन करता है और उत्तर-उत्तर वाद पूर्व-पूर्व का खंडन और अंतिम वाद का खंडन प्रथम वाद करता है । इस प्रकार मंडन-खंडन का यह चक्र चलता रहता है। कोई भी वाद अपने आप में पूर्ण नहीं, फिर भी उसमें सत्यांश अवश्य है । यह तथ्य उस ग्रन्थ से फलित किया गया ।
नयचक्र में क्रमशः इन वादों की चर्चा है-अज्ञानवाद--उस प्रसंग में प्रत्यक्ष प्रमाण, सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद, अपौरुषेयवाद, विधिवाद आदि की चर्चा की गई है, पुरुषाद्वैतवादइस प्रसंग में सत्कार्यवाद आदि की चर्चा है, नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद, अद्वतवाद, पुरुषप्रकृतिवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद, द्रव्य और क्रिया का तादात्म्य, द्रव्य और क्रिया का भेद, सत्ता, समवाय, अपोह, शब्दाद्वैत, ज्ञानवाद, जातिवाद, अवक्तव्यवाद, गुणवाद, निर्हेतुक विकासवाद और स्थितिवाद । स्पष्ट है कि इसमें जैन का अपना विशिष्ट कोई मत नहीं है किन्तु तत्काल के सभी वादों का-मन्तव्यों का सापेक्ष स्वीकार एक न्यायाधीश की तटस्थता से किया गया है। स्याद्वाद की यही विशेषता है जिसे आचार्य जिनभद्र के शब्दों में कहा जाय तो यह है"सर्वनयमतान्यप्यमूनि पृथक् परीत्तविषयत्वाद् अप्रमाणम्, एतान्येव संहितानि जिनमतम्, अन्तर्बाह्यनिमित्तसामग्रीमयत्वात्, प्रमाणं चेति ।"
-विशेषा० भा० १५२८ । अर्थात् सभी नयों-मतों का समुदाय ही जिनमत है।
आचार्य सिद्धसेन ने तो कहा था कि जितने भी वचन के मार्ग हैं उतने ही नय हैं-और वे परसमय हैं-(सन्मति० ३-४७) किन्तु जैनदर्शन तो उन परसमय रूप मिथ्यादर्शनों का समूह ही है (वही ३-६६) । उनकी इसी बात को आचार्य जिनभद्र ने इस प्रकार स्पष्ट किया है
जावंतो वयणपहा तावन्तो व णया वि सद्धातो। ते चेव य परसमया सम्मत्तं समुदिता सव्वे ।।
-विशेषा० २७३६ जब यही नय-नाना मतवाद एक समूह-रूप हो जाते हैं, वे सम्यक हैं-यही जैनमत है।
ग
है तत्परिवर्जनार्थं मध्यमाप्रतिपद् यदात्मनैरात्म्ययोर्मध्ये निर्विकल्पं ज्ञानम् ।
-मध्यान्तविभाग-भाष्य-पृ० १७४
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