Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर
२७५ ।
व्याख्या नहीं कर सकते हैं। इसीलिए नयवादी के लिए नितांत आवश्यक है कि वह केवल स्वमत के प्रस्तुतीकरण का ही कार्य करे ।
२ नयवाद का सिद्धान्त एकांशभूत ज्ञान का सिद्धान्त अवश्य है किन्तु हठवादिता तथा दुराग्रह का सिद्धान्त नहीं है। न तो नयवाद पर यह आक्षेप ही लग सकता है कि "नयवाद" वस्तु के केवल एकांशभूत ज्ञान को ही ज्ञान की इतिश्री समझ लेना प्रतिपादित करता है और न “नयवादी” को एकांशभूत ज्ञान प्राप्त कर लेने पर कूपमण्डूक होने का उपदेश ही देता है । “नयवादी" अपने पक्ष को प्रतिपादित करने में किसी भी प्रकार के कदाग्रह का आश्रय नहीं लेता है, अपितु मात्र मत-प्रस्तुतीकरण का आश्रय लेता है, चाहे उस मत को अन्य व्यक्ति स्वीकार करें या न करें। व्यवहारिक जगत् में सम्भवतः नयवाद का यह पक्ष निर्बल प्रतीत होता है, कारण कि व्यक्ति अपने मत की स्थापना करते समय विषय के प्रति दृढ़ता का परिचय शक्तिशाली शब्दों से देता है, जबकि नयवाद इस प्रकार के दृष्टिकोण के प्रतिपादन करने के पक्ष में नहीं है।
३ नयवाद का पक्षधर केवल वस्तु के एकांशभूत ज्ञान को प्राप्त कर लेना ही अपनी ज्ञानपिपासा के लिए पर्याप्त नहीं समझता है अपितु वह वस्तु के अन्यधर्मों का भी ज्ञान प्राप्त करने को सतत यत्नशील रहता है । वस्तु के अन्यधर्मों का ज्ञान होने पर भी अन्य व्यक्ति के द्वारा प्रस्तुत वस्तु सम्बन्धी दृष्टिकोणों को नयवादी खंडन नहीं करता है अपितु वह अन्य के दृष्टिकोण को शान्तभाव से सुनता है।
कतिपय विद्वानों का यह अभिमत है कि जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित आंशिक ज्ञान (नयज्ञान) ने ही जगत् में पारस्परिक कलह को उग्रता प्रदान की है। वैसे तो प्रत्येक दर्शन इस विचित्र रूपात्मक विश्व के ही आद्योपान्त विवेचन में व्यस्त है किन्तु फिर भी दार्शनिक विचारों के ऊहापोह को प्रत्येक दर्शन एक विशिष्ट अंश तक ही सीमित रखता है। दर्शन जगत् में पारस्परिक विद्वेष का कारण अपने-अपने सीमित विवेचनों को ही सत्य तथा न्यायसंगत सिद्ध करना है। विषय सम्बन्धी दार्शनिकों का दृष्टिकोण हाथी के स्वरूप निर्णय के विषय में झगड़ा करने वाले अन्ध व्यक्तियों के पारस्परिक दृष्टिकोण के समान है। किन्तु जैनदर्शन का स्पष्ट मत है कि नानारूपिणी सत्ता के अंशमात्र का विवेचन वस्तु का यथार्थ तथा पूर्ण ज्ञान अधिगत करने का प्रथम सोपान है, क्योंकि नयवाद साध्य नहीं अपितु अनेकान्तवाद के स्वरूप निर्णय का साधन है। अतः जैनदर्शन में वैचारिक भिन्नता को तो स्थान है किन्तु उसके कारण होने वाले पारस्परिक विरोध को स्थान नहीं है।
विचारस्वातन्त्र्य के युग में चंकि प्रत्येक व्यक्ति हर विचारधारा को समय की उपयोगिता की कसौटी पर कसकर उसका मूल्यांकन करने का पक्षपाती हो गया है, अतः इस वाद की भी उपयोगिता सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन में कुछ है अथवा नहीं यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न का समाधान नयवाद के दृष्टिकोण से सम्भव है। यदि आज के वैचारिक क्षेत्र में व्यक्ति नय-सिद्धान्त को आधारभूत मानकर विषय या तत्व सम्बन्धी दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का पक्षपाती हो जाये तो व्यक्तियों के जीवन में विचार सम्बन्धी मतभेद से होने वाला विरोध स्वतः समाप्त हो जायेगा । व्यक्ति को अपने विचारों को अन्य पर थोपने का न तो समय मिलेगा और न स्वमतपृष्टि हेतु आग्रह करने का व्यक्ति को अवसर ही मिलेगा। जबकि इससे विपरीत व्यक्ति को दूसरे के दृष्टिकोण को सहिष्णता पूर्वक सुनने, समझने का पूर्ण अवसर मिलेगा, जिससे व्यक्ति स्वमत का पुनर्मल्यांकन कर सकने का लाभ ले सकता है। इस प्रकार विवेकीकृत दृष्टिकोण से न केवल व्यक्ति की ही उन्नति हो सकती है अपितु समाज तथा देश की उन्नति का भी मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
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आचार्गप्रवa श्रीआनन्द
आचार्यप्रवभिगमन श्रीआनन्द
Avi
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