Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्ञानवाद : एक परिशीलन २७६ जानना, देखना और अनुभूति करना ये चैतन्य के तीन मुख्य रूप हैं । आँख के द्वारा देखा जाता है । स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत तथा मन के द्वारा जाना जाता है ।
आगमिक दृष्टि से जिस प्रकार चक्षु का दर्शन होता है उसी प्रकार अचक्षु-मन और चक्षु के अतिरिक्त चार इन्द्रियों का भी दर्शन होता है । अवधि और केवल का भी दर्शन होता है । यहाँ पर दर्शन का अर्थ देखना नहीं किन्तु एकता या अभेद का सामान्यज्ञान, दर्शन है । अनेकता या भेद को जानना ज्ञान है। ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल ये पांच प्रकार हैं और दर्शन के चार मनःपर्याय ज्ञान भेद को ही जानता है इसलिए उसका दर्शन नहीं
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होता है ।
गुण और पर्याय की दृष्टि से विश्व विभक्त है और द्रव्यगत एकता की दृष्टि से अविभक्त है । इसलिए विश्व को सर्वथा विभक्त और न सर्वथा अविभक्त कह सकते हैं । आवृत ज्ञान की क्षमता न्यून होती है । एतदर्थ प्रथम उसके द्वारा द्रव्य का सामान्य रूप जाना जाता है । उसके पश्चात् नाना प्रकार के परिवर्तन और क्षमता जानी जाती है ।
ज्ञान और वेदनानुभूति पांच इन्द्रियों में से स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ भोगी हैं। इन इन्द्रियों से विषय का ज्ञान और अनुभूति दोनों होती हैं । चक्षु और श्रोत्र ये दो कामी हैं, इन इन्द्रियों से केवल विषय जाना जाता है पर उसकी अनुभूति नहीं होती । ३
इन्द्रियों से हम बाह्य वस्तुओं को जानते हैं किंतु जानने की प्रक्रिया समान नहीं है । अन्य इन्द्रियों से चक्षु की ज्ञानशक्ति अधिक तीव्र है एतदर्थ वह अस्पष्ट रूप को जान लेती है ।
चक्षु की अपेक्षा श्रोत्र की ज्ञानशक्ति न्यून है क्योंकि वह स्पष्ट शब्दों को ही जान पाता है । स्पर्शन, रसन और घ्राण इनकी क्षमता श्रोत्र से भी न्यून है। बिना बद्ध-स्पष्ट हुए ये अपने विषय को नहीं जान पाते ।
स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ अपने विषय के साथ निकटतम सम्बन्ध स्थापित करती हैं इसलिए उन्हें ज्ञान के साथ अनुभूति भी होती है। किंतु चक्षु और श्रोत्र में इन्द्रिय और विषय का निकटतम सम्बन्ध स्थापित नहीं होता इसलिए उनमें ज्ञान होता है अनुभूति नहीं होती ।
मन से भी अनुभूति होती है किंतु वह बाह्य विषयों के गाढ़तम सम्पर्क से नहीं होती । किंतु वह अनुभूति होती है विषय के अनुरूप मन का परिणमन होने से ।
वेदना के दो रूप : सुख और दुःख वाह्य जगत का परिज्ञान हमें इन्द्रियों के द्वारा होता है और उसका संवर्धन मन से होता है । स्पर्श, रस, गंध और रूप ये पदार्थ के मौलिक गुण हैं और शब्द उसकी पर्याय है । इन्द्रियाँ अपने विषय को ग्रहण करती हैं और मन से उसका विस्तार होता है । बाह्य वस्तुओं के संयोग और वियोग से सुख और दुःख की अनुभूति होती है, किंतु उसे शुद्ध ज्ञान नहीं कह सकते । उसकी अनुभूति अचेतन को नहीं होती, अतः वह अज्ञान भी नहीं है। ज्ञान और बाह्य पदार्थ के संयोग से
वेदना का अनुभव होता है । शारीरिक और दुःख सुख की अनुभूति इन्द्रिय और मन के माध्यम से होती है । अमनस्क जीवों को मुख्यतः शारीरिक वेदना होती है और समनस्क जीवों को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की वेदनाएँ होती हैं। सुख और दुःख ये दोनों वेदनाएँ एक साथ नहीं होतीं ।
३ पुट्ठे सुणेइ सद्धं रूपं पुण पासइ अपुट्ठे तु ।
गंध रसं च फासं, बद्ध-पुट्ठं वियागरे ॥
आनंदऋष
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अन्थ 32 श्री आनन्द न
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