Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्री आनन्दन ग्रन्थ 32 श्री आनन्द अन्थ
धर्म और दर्शन
ॐ
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२८०
आत्म- रमण चैतन्य की विशुद्ध परिणति है । वह आत्मसुख वेदना नहीं है । उसे स्वसंवेदन, आत्मानुभूति या स्वरूप संवेदन कहा जाता है ।
आगमों में ज्ञानवाद
आगम साहित्य में ज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ प्राप्त होती हैं, वे अत्यधिक प्राचीन हैं । राजप्रश्नीय सूत्र में केशीकुमार श्रमण राजा प्रदेशी को कहते हैं कि हम श्रमण निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के ज्ञान मानते हैं - १. आभिनिबोधिकज्ञान २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनः पर्यवज्ञान, ५. केवलज्ञान | ४
केशीकुमार श्रमण भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण थे । उन्होंने जिन पांच ज्ञानों का निरूपण किया, उन्हीं पांच ज्ञानों का वर्णन भगवान महावीर ने भी किया है।
उत्तराध्ययन में केशी और गौतम का संवाद है । उससे स्पष्ट है कि भगवान पार्श्व और महावीर के शासन में आचार विषयक कुछ मतभेद थे किंतु तत्वज्ञान में कुछ भी मतभेद नहीं था । यदि तत्वज्ञान में मतभेद होता तो उसका उल्लेख प्रस्तुत संवाद में अवश्य होता । पंचज्ञान की मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रायः एक समान है । केवलज्ञान, केवलदर्शन के उपयोग के विषय में कुछ मतभेद है, अन्य सभी समान है ।
विकास क्रम की दृष्टि से आगमों के आधार से ज्ञानचर्चा की तीन भूमिकाएँ प्राप्त होती हैं । ७
प्रथम भूमिका में ज्ञान के जो पाँच भेद किये गये हैं, उनमें आभिनिबोधिक के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा भेद किये हैं। वह विभाग इस प्रकार है— 5
↓ आभिनिबोधिक
अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा
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४
५
६
७
↓
श्रुत
ज्ञान
राजप्रश्नीय सूत्र -१६५ ।
भगवती ८८।२।३१७
↓ अवधि
अवग्रह आदि के भेद-प्रभेद अन्य स्थानों के समान यहाँ पर भी बताये गये हैं ।
दूसरी भूमिका में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये गये हैं । उसके पश्चात् प्रत्यक्ष और परोक्ष के भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। इसमें पांच ज्ञानों में से मति और श्रुत को परोक्षान्तर्गत, अवधि, मनःपर्यव और केवल को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत लिया गया है। इसमें इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को स्थान नहीं दिया गया है। जैनदृष्टि से जो ज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष हैं उन्हें ही प्रत्यक्ष माना है और जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त अन्य साधनों की अपेक्षा रखते हैं, उन्हें परोक्ष माना है ।
उत्तराध्ययन अध्ययन २३ ।
आगम युग का जैनदर्शन - पं० दलसुख मालवणिया, पृ० १२६
भगवती सूत्र ८८२, ३१७ ।
↓
मनः पर्यव
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केवल
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