Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैनेतर सभी दार्शनिकों ने नोइन्द्रिय-जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है । नहीं माना है । यह योजना स्थानांगसूत्र में है ।
केवल
भगवती सूत्र की प्रथम योजना में और इस योजना में मुख्य अन्तर यह है कि यहाँ पर ज्ञान के मुख्य दो भेद किये हैं, पांच नहीं। पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों के प्रभेद के रूप में गिना है। इस प्रकार स्पष्ट परिज्ञान होता है कि यह प्राथमिक भूमिका का विकास है। जो इस प्रकार है
भव प्रत्ययिक,
अवधि
ऋजुमति,
प्रत्यक्ष
क्षायोपशमिक
अंगप्रविष्ट
नोकेवल
अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह
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श्रुतनिःसृत
आवश्यक
६ स्थानाङ्गसूत्र ७ १
ज्ञान
आभिनिबोधक
मनः पर्यव
ज्ञानवाद : एक परिशीलन
विपुलमति
अर्थावग्रह
२८१
परन्तु उसे यहाँ पर प्रत्यक्ष
परोक्ष
अश्रुत निःसृत
श्री आनन्द देव का
व्यंजनावग्रह
कालिक
उत्कालिक
faat भूमिका में इन्द्रियजन्य मतिज्ञान का परोक्ष के अन्तर्गत समावेश किया है । तृतीय भूमिका में और भी कुछ परिवर्तन आया है । इन्द्रियजन्य मतिज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद
श्रुतज्ञान
अंगबाह्य
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आवश्यक व्यतिरिक्त
आनन्द
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320
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अभिन्दन
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