Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्ञानवाद : एक परिशीलन
२८३
चा
जैनदर्शन आत्म-प्रत्यक्ष को ही मुख्य रूप से प्रत्यक्ष मानता है जबकि अन्य दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानते हैं । प्रत्यक्ष के अवधि, मनःपर्यव, केवल ये तीन भेद हैं।
क्षेत्र, विशुद्धि आदि की दृष्टि से उनमें तारतम्य है । केवलज्ञान सबसे विशुद्ध और पूर्ण है। आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान ये परोक्ष हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान का ही अपर नाम मतिज्ञान भी है । मतिज्ञान इन्द्रिय और मन दोनों से होता है। श्रुतज्ञान का आधार मन है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव आदि अनेक अवान्तर भेद हैं।
तीसरी भूमिका में जैनदृष्टि के साथ ही इतर दृष्टि का भी पुट है। प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष ये दो भेद किये हैं। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। वस्तुतः वह इन्द्रियाश्रित होने से परोक्ष ही है किन्तु उसे प्रत्यक्ष में स्थान देकर लौकिक मत का समन्वय किया है। विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि वस्तुतः इन्द्रियज प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए अर्थात् लोकव्यवहार की दृष्टि से ही इन्द्रियज मति को प्रत्यक्ष कहा है, वस्तुतः वह परोक्ष ही है। परमार्थतः प्रत्यक्ष कोटि में आत्ममात्र सापेक्ष अवधि, मनःपर्यय और केवल तीन हैं। प्रत्यक्ष-परोक्षत्व व्यवहार इस भूमिका में इस प्रकार मान्य होता है
१-अवधि, मनःपर्याय और केवल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। २-श्रुत परोक्ष ही है। ३-इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टि से
प्रत्यक्ष है। ४-मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है।
आचार्य अकलंक ने और अन्य आचार्यों ने प्रत्यक्ष के दो भेद किये हैं-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक । यह उनकी स्वयं की कल्पना नहीं है किन्तु उनकी कल्पना का मूल आधार नन्दीसूत्र और विशेषावश्यक भाष्य में रहा हुआ है।
आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह आदि भेदों पर बाद के दार्शनिक आचार्यों ने विस्तार से विवेचन किया है। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि की इन ताकिकों ने जो दार्शनिक दृष्टि से व्याख्या की है, वैसी ही व्याख्या आगम साहित्य में नहीं है। इसका मूल कारण यह है कि आगम-युग में इस सम्बन्ध को लेकर कोई संघर्ष नहीं था किंतु उसके पश्चात् अन्य दार्शनिकों से जैन दार्शनिकों को अत्यधिक संघर्ष करना पड़ा, जिसके फलस्वरूप नवीन ढंग के तर्क सामने आये। उन्होंने इस पर दार्शनिक दृष्टि से गम्भीर चितन किया। हम यहाँ आगम व दार्शनिक ग्रंथों के विमल प्रकाश में पाँच ज्ञानों पर चिंतन करेंगे, उसके पश्चात् स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि पर प्रमाण की दृष्टि से विचार किया जायेगा।
मतिज्ञान जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है, वह मतिज्ञान है । अर्थात् जिस ज्ञान में इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रहती है उसे मतिज्ञान कहा गया है।'' आगम साहित्य
१० एगन्तेण परोक्खं लिगियमोहाइयं च पच्चक्खं । इन्दियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं ॥
-विशेषावश्यक भाष्य ६५ और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति । ११ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र १।१४
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आगारप्रवन
भाचार्यप्रवर आभः आनन्दमयन्थ.श्रामजन्दगन्ध
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