Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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साचार्ग
आपाप्रवन अभि श्रीआनन्दसाग्रन्थश्रीआनन्दंाग्रन्थ
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धर्म और दर्शन
प्रत्येक घटक में घृणा, अविश्वास, मानसिक तनाव एवं अशान्ति के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। आत्मग्लानि, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, आत्मविद्रोह, अराजकता, आर्थिक विषमता, हड़ताल आदि सभी जीवन की लक्ष्यहीनता की ही ओर इंगित कर रहे हैं। इसका कारण आज की वैज्ञानिक दृष्टि है जो कि मनुष्य को बौद्धिकता के अतिरेक का स्पर्शमात्र करा रही है, जिससे मनुष्य अन्तर्जगत की व्यापक सीमाओं को संकीर्ण कर अपनी बहिर्जगत की सीमाओं को ही प्रसारित करने में यत्नशील हो गया है। अतः वर्ग-संघर्ष बहुल द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी युग में क्या प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित कोई सिद्धान्त शाश्वतकालीन होकर सामाजिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समरस बनाने में सक्षम है ? इस जटिल प्रश्न का उत्तर यदि जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्राप्त करने का प्रयास किया जाये तो पूर्वाग्रह रहित कहा जा सकता है कि मानव नयसिद्धान्त के स्वरूप को समझकर उसके अनुरूप आचरण करे तो अवश्य ही आज के आपाधापी के युग में वैचारिक ऊहापोह के झंझावातों से अपने को मुक्त कर आत्मोन्नति के प्रगतिपथ को प्रशस्त कर सकता है।
__ अद्यतन बौद्धिक तथा तार्किक प्राणायाम के युग में व्यक्ति की समस्याओं के समाधान हेतु ऐसे धर्म तथा दर्शन की आवश्यकता है जो आग्रहरहित दृष्टि से सत्यान्वेषण की प्रेरणा दे सके। इस दृष्टि से भी नयवाद तथा प्रमाण वाद समय की कसौटी पर खरा ही उतरता है। अनेकान्तवाद का अर्थ है कि प्रत्येक पदार्थ में विविध धर्म तथा गुण हैं। सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार साधारण व्यक्ति की ज्ञानसीमा से सम्भव नहीं है अतः वह वस्तु के एकांगी गुण, धर्मों का ही ज्ञान प्राप्त कर पाता है । इस एकांगी-ज्ञान के कारण ही वस्तु के स्वरूप-प्रतीति में भी पर्याप्त भिन्नता लक्षित होती है किन्तु इस भिन्नता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वस्तु का एकांगी धर्म ही सत्य है तथा अन्य धर्म असत्य है। "नयवाद" के उपरोक्त स्वरूप की स्पष्ट अभिव्यक्ति हेतु 'नयवाद' का विश्लेषण अघोलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया आ सकता है। नयवाद के जीवन को छूने वाले विशेष बिन्दु
१. स्वमत की शालीन प्रस्तुति, २. स्वमत के प्रति दुराग्रह का अभाव, ३. अन्य मत के प्रति विनम्र एवं विधेयात्मक दृष्टि ।
१ नयवाद का स्पष्ट अर्थ है कि अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म की सांगोपांग प्रतीति । यह वाद विषय के प्रति व्यक्ति का दृष्टिकोण है। जिसके आधार पर व्यक्ति किसी पदार्थ के विषय में अमूर्तीकरण (भेदपृथक्करण) की प्रक्रिया को कार्यान्वित करता है । इस दृष्टिकोण की कल्पनाओं अथवा आंशिक सम्मतियों का जो सम्बन्ध है वह अभीष्ट उद्देश्यों की उपज होती है। इस भेदपृथक्करण एवम् लक्ष्यविशेष पर बल देने के कारण ही व्यक्ति के ज्ञान में सापेक्षता आती है। किसी विशेष दृष्टिकोण को स्वीकार करने का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति अन्य दृष्टिकोणों का खण्डन कर रहा है। नयवादी का यह महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है कि वह केवल-मात्र स्वमत की शालीन प्रस्तुति करे क्योंकि एक व्यक्ति का दृष्टिकोण विशेष सत्य के उतने ही समीप है जितना कि अन्य व्यक्ति का उसी वस्तु सम्बन्धी दृष्टिकोण। यह भिन्न बात है कि वस्तु के सापेक्ष समाधान में ऐसे अमूर्तीकरण हैं जिनके अन्तर्गत यथार्थ-सत्ता का तो समावेश हो जाता है किन्तु वे वस्तु की पूर्णरूपेण
८ सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयः ।
जे उ तत्थ विउस्सन्ति संसारं ते विउस्सिया ।।
-सूत्रकृतांग १।१२।२३
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