Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्राआनन्द
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२७२
धर्म और दर्शन
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किसी भी वस्तु के दो धर्म सम्भव हैं (१) एक तो वह जिसके कारण वस्तु की विविध परिणामों के बीच एकता बनी रह सकती है। इसकी ही संज्ञा द्रव्याथिक नय है। (२) दूसरे वे धर्म जो देश तथा काल के कारण किसी वस्तु में उत्पन्न हुआ करते हैं। इन विशेष धर्मों के निरूपण को ही पर्यायाथिक नय संज्ञा दी गई है।
प्रथम नय तीन प्रकार का है तथा द्वितीय नय चार प्रकार का है। दोनों का समयोजन करने पर 'नय' के सात प्रकार किये जाते हैं
(१) नैगमनय (२) संग्रहनय (३) व्यवहारनय (४) ऋजुसूत्रनय (५) शब्द नय (६) समभिरूढ़नय (समधिरूढ़नय) (७) एवंभूतनय ।
इन समयोजित सप्त नय में से प्रथम चार पदार्थों अथवा उनके अर्थों के साथ सम्बद्ध हैं और शेष तीन शब्दों से सम्बन्ध रखते हैं। ये सभी यदि अपने आप में पृथक् एवं पूर्ण रूप में लिए जायें तो हमें हेत्वाभास (मिथ्या आभास) ही प्रतीत होंगे। अर्थ (पदार्थ एवं अर्थ) नय अधोलिखित हैं
(१) नैगमनय-इसकी व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती है। आचार्य पूज्यपाद का मत है कि यह एक प्रयत्न विशेष के प्रयोजन अथवा लक्ष्य से सम्बन्ध रखता है जो कि बराबर और निरन्तर उसके अन्दर विद्यमान रहता है। जब हम ऐसे किसी एक व्यक्ति को देखते हैं जो जल, अग्नि, पात्र आदि ले जा रहा है और हम उससे प्रश्न करते हैं कि 'तुम क्या कर रहे हो तो व्यक्ति प्रत्युत्तर देता है कि "मैं भोजन पका रहा हूँ।" यह नैगमनय का दृष्टान्त है। यह सिद्धान्त सामान्य प्रयोजन का बोध कराता है। आचार्य सिद्धसेन का मत इससे कुछ भिन्न है। उनका कथन है कि जब व्यक्ति एक वस्तु का ज्ञान अधिगत करता है अर्थात् उसके अन्तर्गत जातिगत एवं विशिष्ट दोनों प्रकार के गुणों को पहचान लेता है और उनके मध्य पृथक्करण की भावना नहीं रखता है तब वह नैगमनय की अवस्था कहलाती है।
(२) संग्रहनय-यह नय सामान्य विशिष्टताओं पर बल देता है। यह वर्गगत दृष्टिकोण है । यद्यपि यह सत्य है कि वर्ग व्यक्तियों से अतिरिक्त कोई विशिष्ट पदार्थ नहीं है किन्तु फिर भी सामान्य विशेषताओं का परीक्षण कभी-कभी आवश्यक होता है। इसके दो भेद स्वीकार किये गये हैं
(१) परसंग्रहनय, (२) अपरसंग्रहनय ।
(३) व्यवहारनय-यह नय प्रचलित तथा परम्परागत है। व्यक्ति को वस्तु का ज्ञान समस्त रूप से होता है और व्यक्ति इसकी निहित विशेषताओं पर बल देता है। वस्तुओं का विशिष्ट आकार-प्रकार भी व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है। भौतिकवाद की कल्पना और बहुतत्ववाद को भी हम इसके साथ सम्बद्ध कर सकते हैं। ये सभी इस नय के आभास हैं।
(४) ऋजुसूत्रनय---यह नय व्यवहारनय की अपेक्षा अत्यधिक संकुचित है। यह पदार्थ की एक समयविशेष की अवस्था का विचार करता है। इसमें सभी के प्रकार के नैरन्तर्य एवं साम्य को .
६ (क) नयकणिका, आरा संस्करण तत्वार्थ राज० वा० ११३३, ३४-३५
(ख) प्रमाणनयतत्वालोक ७।१३, ३२, ३६ । तत्वार्थ राजवर्तिक १, ३३, ६ (ग) लघीयस्त्रय ३, ६, ७०-७१ (घ) द्रव्यानुयोगतर्कणा, (च) भारतीय दर्शन, भाग १, डा० राधाकृष्णन्, पृ० २७५
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