Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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शून्यवाद और स्याद्वाद २६६ भारतीय दर्शन के अखाड़े में जैनदर्शन का प्रवेश देरी से हुआ। इसका फायदा यह हुआ कि जैनाचार्य नाना मतों की निर्बलता और सबलता को देख सके और सभी वादों का समन्वय करने का मार्ग उन्होंने अपनाया। यह उनकी कमजोरी थी या भारतीय प्रजा की भेद में अभेद कर लेने की मूल भूत शक्ति का प्रदर्शन था—यह आप सब महानुभावों के विचार का विषय है। अभी तो इतना संकेत देकर ही मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ।
१० अखिल भारतीय दर्शन परिषद् (१८ वाँ अधिवेशन अहमदाबाद में ता० २७-१२-७३ को
हुआ) का उद्घाटन भाषण ।
आनन्द-वच
व्याकरण के अनुसार 'मनस्' शब्द नपुंसक लिंग है। नपुंसक में चंचलता एवं विकलता अधिक होती है। 'मन' की स्थिति की प्रायः ऐसी ही है। आकाश के असं ख्य-असंख्य सभी नक्षत्र सदा गतिशील एवं अस्थिर रहते हैं, किंतु ध्रुव 'तारा' सदा उत्तर दिशा में एक ही स्थान पर स्थिर रहता है, वह 'अमरनक्षत्र' माना गया है। ऐसा क्यों ? शायद इसीलिए कि वह दिग्भ्रांत यात्रियों को सदा निष्कामभाव से दिशादर्शन देता रहता है। जो परमार्थ भाव से मार्गदर्शन करता है, वह अमरता का वरण अवश्य ही करेगा। बंगाल में पाट (जूट) अधिक होता है, हजारों लाखों लोग पाट का व्यापार करते हैं ; पाट खरीदते हैं। बाजार में पाट गीला भी आता है और सुखा भी। जो चतुर खरीददार होता है वह कभी गीला पाट नहीं खरीदता चाहे, कितना ही सस्ता मिले। वह कहता है मुझे तो सूखा पाट चाहिए ताकि उसका सहीसही वजन और सही क्वालिटी का पता चले। इसी प्रकार संसार में जो तत्त्व का जानकार होता है, वह कोरे सुन्दर शब्दों के रूप में भीगा हुआ तत्त्व नहीं पसंद करता है, वह सही चीज देखता है, तभी वह
उसका सही वजन और सही भाव का सही मूल्य चुका सकता है। 0 बाहर की झूठी मिठास और झूठे सौन्दर्य से वस्तु का मूल्य बढ़ता नहीं, गिरता है। । विज्ञान प्रयोगों की बैसाखी पर चलता है, धर्म अनुभूतियों के परों पर उड़ता है।
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आचारप्रवर आभाचार्यप्रवचन आभार
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