Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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सुख का साधन -धर्म
धर्म को त्रिवेणी -अहिंसा, संयम, तप
महाभारत में कहा गया है कि अहिंसा ही सर्वोत्तम धर्म है । वैसे भी अहिंसा के महत्त्व को कौन नहीं समझता और कौन नहीं अनुभव करता है कि आज विश्व को अहिंसा रूपी धर्म की कितनी आव श्यकता है? आज संसार भीषण महायुद्धों से तथा आपसी मारकाट से त्रस्त हो रहा है। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि किसी प्रकार जगत में शाँति का वातावरण स्थापित हो जाये, किन्तु वह शांति क्या हिंसा से मिल सकती है ? नहीं । अहिंसा के द्वारा ही संसार में शांति की स्थापना हो सकती है और इस प्रकार हिंसा की अपेक्षा अहिंसा की शक्ति अधिक शक्तिशाली साबित होती है। हिंसा कभी भी और कहीं भी उत्तम फल प्रदान नहीं कर सकती है। कहा भी है
प्रसूते सत्वानां तदपि न वधः क्वापि सुकृतम् ।
प्राणियों को हिंसा कभी और कहीं पर भी पुण्य को उत्पन्न करने वाली नहीं होती है। वह तो एकान्तरूप से जघन्यतम पाप ही है इसलिये प्रत्येक प्राणी को हिंसा की भावना का परित्याग करके करुणा और दया की भावना को हृदय में स्थान देना चाहिये । दयावान पुरुष दूसरों को सुख पहुँचाता है। तथा स्वयं भी संतोष और मुख का अनुभव करता है ।
दया दो तरफी कृपा है । इसकी कृपा दाता पर भी होती है और पात्र पर भी । वास्तव में ही दया मानवता का सर्वोच्च लक्षण है, जिसे धारण करने वाला व्यक्ति परमशांति का अनुभव करता है । दयालु पुरुष 'आत्मवत् सर्वभूतेषु के सिद्धान्त को अपना लेता है तथा कबीर के शब्दों में कहता है
दया कीन पर कीजिये का पर सांई के सब जीव हैं कोरी
निर्दय होय । कुंजर दोय ॥
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अर्थात् किस पर दया करें और किस पर न करें, छोटी-सी चींटी से लेकर विशालकाय हाथी जैसे सभी प्राभी तो एक ही परमात्मा के अंश हैं।
महापुरुष ऐसे ही समदर्शी होते हैं। उन्हें प्रत्येक प्राणी की आत्मा में परमात्मा दिखाई देता है । प्रत्येक आत्मा में परमात्मा को देखने वाले ऐसे महापुरुष ही धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ सकते हैं तथा अहिंसा धर्म की आराधना कर सकते हैं ।
धर्म का दूसरा स्वरूप संयम है संयम का अर्थ है - नियंत्रण अपने मन को वश में रखना तथा अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं पर नियन्त्रण रखना ही संयम कहलाता है। कोई भी व्यक्ति या देश जब अपनी आवश्यकताओं को सीमा से अधिक बढ़ा लेता है तथा अपनी कामनाओं पर नियंत्रण न रख सकने के कारण दूसरों के हक छीनने पर आमादा होता है तो वहीं पर हिंसा का जन्म हो जाता है । इसलिये अहिंसा का पालन करने के लिये संयम की अनिवार्य आवश्यकता है।
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आज के युग में मनुष्यों की मनोवृत्तियाँ अत्यन्त दूषित हो गई हैं। जिसे देखो वही नीति अनीति या पुण्य-पाप की परवाह किये बिना धन संग्रह करने में जुटा हुआ है। कहा भी है
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तृष्णा वश हैं जग जीव सभी हित काज अकाज कछु न विचारे । धन सहस्र हुवे तो चहे लख कोटि असंख्य अनन्त की चाह प्रसारे ॥ जिमि ईन्धन डारत वह्नि बढ़े तिमही तृषणा धन चाहव घारे ।
चित घारत ज्ञान सन्तोष अमोरिल तो जिय के सब काज सुधारे ॥
जब तक मानव धन-सम्पत्ति में आसक्त होकर उससे सुख पाने की आशा करता है, तब तक शांति का अनुभव नहीं कर पाता उलटे तृष्णा की आग में जलता रहता है मनुष्य को कभी भी आत्मिक और सच्चे सुख का अनुभव नहीं होने देता ।
थन, लोभ और लालच
आचार्य प्रवयव आभिनंदन आआनन्द आधाय प्रवर
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ग्रन्थ अभिनंदन
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