Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
आचार्य प्रव
श्रीमानको अदि आमा भन
ग्रन्थ
ग्रन्थ
धर्म और दर्शन
T
शे
DOWN
२५२
( परमार्थ) दृष्टिकोणों को जानना ही पर्याप्त है वरन् उनके भी परे जाना होता है जहाँ दृष्टिकोणों के समस्त विकल्प शून्य हो जाते हैं । जैन विचारणा के उपरोक्त दृष्टिकोण का समर्थन हमें बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में भी मिलता है । बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में पाया जाने वाला यह विचारसाम्य तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है ।
बौद्ध शून्यवादी परम्परा के प्रखर दार्शनिक आचार्य नागार्जुन, आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के साथ समस्वर हो कह उठते हैं ' - भगवान बुद्ध ने समस्त efer की शून्यता ( नयपक्षकक्ष रहितता) का उपदेश दिया है, जिसकी शून्य ही दृष्टि है ऐसा साधक ही परमतत्व का साक्षात्कार करता है ।
鱷 आगे परमतत्व के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-वह परम तत्व न शून्य है, न
अशून्य है, न दोनों है और न दोनों नहीं है । शून्यवादी बौद्ध दार्शनिक तो परम तत्व को शून्य और
क्योंकि परम तत्व को शून्य
अन्य आदि किसी भी संज्ञा से अभिहित करना उचित नहीं समझते, अशून्य, आदि किसी संज्ञा से अभिहित करना उसे बुद्धि की कल्पना के भीतर लाना है । परम तत्व तो विचार की विधाओं से परे है, चतुष्कोटी विनिर्मुक्त है, विकल्पों के जाल से परे है ।
गीता भी कहती है 'परम तत्व के बोध के लिए विकल्पों के जनक मन को आत्मा में स्थित करके कुछ भी चिन्तन या विकल्प नहीं करना चाहिए। जिस साधक के मन में विकल्पों का यह ज्वार शांत हो चुका है और जिसके मन की समस्त चंचलता समाप्त हो गई है, वही योगी ब्रह्मभूत, निष्पाप और उत्तम सुख से युक्त होता ।
व्यवहार और परमार्थ की आचारदर्शन के लिए आवश्यकता
इस प्रकार आचार दर्शन अपने आदर्श के रूप में जिस सत्ता के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि चाहता है वह दृष्टिकोणों या नयों के द्वारा प्राप्त नहीं होती लेकिन नयपक्षों या दृष्टिकोणों से प्रत्युत्पन्न विकल्पों के समस्त जाल के विलय होने पर शुद्ध निर्विकल्प समाधि की अवस्था में प्राप्त होता है । यही निर्विकल्प समाधि की अवस्था ही जैन, बौद्ध और वेदान्त के आचारदर्शन का चरम लक्ष्य है, जिसमें सत् साक्षात्कार हो जाता है । लेकिन सम्भवतः यहाँ विद्वत्वर्ग यह विचार करेगा कि यदि साधना का लक्ष्य ही नयपक्षों या विकल्पों से ऊपर उठना है, तो फिर आचारदर्शन या तत्वज्ञान के क्षेत्र में नयपक्षों या तत्वदृष्टियों के निरूपण की क्या आवश्यकता है ? लेकिन इस प्रश्न का समुचित उत्तर जैन आचार्य कुन्दकुन्द और बौद्ध शून्यवादी दार्शनिक नागार्जुन बहुत पहले दे गये हैं ।
यद्यपि साधना की पूर्णता या यथार्थ की उपलब्धि विकल्पों से अथवा नयपक्षों से ऊपर उठने में ही है लेकिन यह ऊपर उठना उनके ही सहारे सम्भव होता है, व्यवहार के सहारे परमार्थ को जाना जाता है और उस परमार्थ के सहारे उस निर्विकल्प सत्ता का बोध होता है। आचार्य
Jain Education International
१ शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता निःसरणं जिनैः ।
येषां तु शून्यतादृष्टिस्तान् साध्यान् बभाषिरे ।। - माध्या० १३.८ शून्यमिति न वक्तव्यमशून्यमिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्रज्ञात्यर्थं न तु कथ्यते । २ आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चितयेत् । - गीता ६।२५ उत्तरार्ध
- माध्या० २२.२१
प्रशान्त मनसं ह्य ेन योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्त रजसं
ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ - गीता ६।२७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org