Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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अपामप्रवभिभाचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दसन्थश्राआनन्द10५१
२५८ धर्म और दर्शन
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कार्य रूप में परिणति नैतिकता का दूसरा पक्ष प्रस्तुत करती है। मात्र संकल्प तो व्यक्ति तक सीमित हो सकता है, उसका समाज पर कोई प्रभाव नहीं होता, वह समाज निरपेक्ष हो सकता है, लेकिन संकल्प को जब कार्य रूप में परिणत किया जाता है, तो वह मात्र वैयक्तिक नहीं रहता है वरन् सामाजिक बन जाता है। अतः नैतिकता का विचार केवल नैश्चयिक या पारमार्थिक दृष्टि पर ही नहीं किया जा सकता है। ऐसा नैतिक मूल्यांकन मात्र आंशिक होगा, अपूर्ण होगा। अतः नैतिकता के समुचित मूल्यांकन के लिए नैतिकता में बाह्य या सामाजिक पक्ष पर भी विचार करना होगा, लेकिन यह सीमा क्षेत्र आचारलक्षी निश्चय नय का नहीं वरन् व्यवहार नय का है । आचार के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि
नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि वह है जो समाचरण के बाह्य पक्ष पर बल देती है। उसमें एकरूपता नहीं विविधता होती है। डा० सुखलाल जी संघवी के शब्दों में "..." व्यवहारिक आचार ऐसा एक रूप नहीं। नैश्चयिक आचार की भूमिका से निष्पन्न ऐसे भिन्न-भिन्न देश-काल-जातिस्वभाव-रुचि आदि के अनुसार कभी-कभी परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले आचार व्यवहारिक आचार की कोटि में गिने जाते हैं।"१ व्यवहारिक आचार देश, काल एवं व्यक्ति सापेक्ष होता है, उसका स्वरूप परिवर्तनशील होता है। वह तो उन परिधियों के समान है जो समकेन्द्रक होते हुए देश (space) में अलग होती है। आचार दर्शन के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि कर्ता के प्रयोजन को गौण कर कर्मपरिणामों का लोकदृष्टि से विचार करती है। वह यह बताती है कि देशकालगत नैतिकता क्या है। किस देश और किस काल में समाचरण के नियमों का बाह्य स्वरूप क्या होगा? इसका निश्चय नैतिकता की व्यवहार दृष्टि करती है। वह देश, काल एवं नैयक्तिक परिस्थितियों के आधार पर नैतिक समाचरण के बाह्य स्वरूप का निर्धारण करती है। जहाँ तक समाचरण के शुभत्व और अशुभत्व के मूल्यांकन करने का प्रश्न है आचरण के आभ्यन्तर पक्ष या कर्ता के प्रयोजन के आधार पर उनके शुभत्व और अशुभत्व का मूल्यांकन नैतिकता की निश्चय दृष्टि करती है जबकि आचरण के बाह्य पक्ष या उसके फल के आधार उनके शुभत्व और अशुभत्व का निश्चय नैतिकता की व्यवहार दृष्टि करती है। जैन विचारणा के अनुसार कर्मों के इस द्विविध मूल्यांकन में ही उसका समुचित मूल्यांकन सम्भव होता है, यद्यपि यह भी सम्भव है कि कोई कर्म निश्चय दृष्टि से शुद्ध या नैतिक होते हुए भी व्यवहारदृष्टि से अशुद्ध या अनैतिक हो सकता है। जैसे-साधु का वह व्यवहार जो शुद्ध मनोभाव और आगमिक आज्ञाओं के अनुकूल होते हुए भी यदि लोकनिन्दा या लोकघृणा का कारण है तो वह निश्चयदृष्टि से शुद्ध होते हुए भी व्यवहारदृष्टि से अशुद्ध है । इसी प्रकार कोई कर्म या समाचरण का रूप व्यवहारदृष्टि से शुद्ध या नैतिक प्रतीत होते हुए भी निश्चयदृष्टि से अशुभ या अनैतिक हो सकता है। जैसे फलाकांक्षा से किया हुआ तप अथवा परोपकार, यह व्यवहार दृष्टि से शुभ होते हुए भी निश्चय दृष्टि से अशुभ है। जैन आचार दर्शन इस तथ्य को स्वीकार करता है कि नैतिक समाचरण में मात्र आन्तरपक्ष या कर्ता का विशुद्ध प्रयोजन ही पर्याप्त नहीं है, लोकव्यवहार की दृष्टि से बाह्य आचरण भी आवश्यक है। यही नहीं, ऐसा साधक जिसने नैतिक आदर्श की उपलब्धि कर ली है उसे भी लोक-व्यवहार की दृष्टि का आचरण करना आवश्यक है।
१ दर्शन और चिन्तन, भाग २ पृ०-४६६ २ व्यवहारा जनोदितम् (लोकाभिमतमेव व्यवहारः) अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४ पृ०-२०५६ ३ क्षेत्र कालं च प्राप्ययो यथा सम्भवति तेन तथा व्यवहारणीयम्-अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४
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