Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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निश्चय और व्यवहार किसका आश्रय लें ? २६१
अनुपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में कर्तव्य क्या है ? इसका निर्णय इस सम्बन्ध में जो पूर्वाचार्यों से सुन रखा हो उसके आधार पर करना चाहिए अथवा प्राचीन समय में ऐसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार किया गया था या परम्परा क्या थी, इसके आधार पर करना चाहिए। ( परम्परायामपि विभाषा कर्तव्याः )
(३) आज्ञा व्यवहार
किसी देश काल एवं वैयक्तिक वैभिन्य के आधार पर उत्पन्न विशेष परिस्थिति में किस प्रकार का समाचरण करना इसके सम्बन्ध में न तो आगमों में स्पष्ट निर्देशन हो, न परम्परा या पूर्वाचार्यों के अनुभव ही कुछ बता पाते हों तो ऐसी स्थिति में कर्तव्य का निश्चय अपने से वरिष्ठजनों की आज्ञा के आधार पर ही करना चाहिए । वरिष्ठजनों, गुरुजनों अथवा देशकाल आदि परिस्थितियों से विज्ञ विद्वान (गीतार्थ) की आज्ञा के अनुरूप आचरण करना आज्ञा व्यवहार है ।
(४) धारणा व्यवहार
यदि परिस्थिति ऐसी हो कि जिसके सम्बन्ध में न तो आगमों में स्पष्ट निर्देश मिल रहा हो, न पूर्व परम्परा ही कुछ बता पाने में समर्थ हो और न निकट में कोई देश-काल विज्ञ वरिष्ठजन ही हो, न इतना समय ही हो कि किसी दूरस्थ विज्ञ एवं गुरुजन से कोई निर्देश प्राप्त किया जा सके, ऐसी स्थिति में किंकर्तव्य या कर्म शुभाशुभता का निश्चय स्व-विवेक से करना चाहिए। स्व-विवेकबुद्धि से निश्चित किए हुए कर्तव्यपथ पर आचरण करना धारणा व्यवहार है ।
(५) जीत व्यवहार
यदि परिस्थिति ऐसी हो कि जिसमें किंकर्तव्य या कर्म की शुभाशुभता के निश्चय का उपरोक्त कोई भी साधन सुलभ न हो और स्व-बुद्धि भी कुण्ठित हो गई हो अथवा कोई निर्णय देने में असमर्थ हो वहाँ पर लोकरूढि के अनुसार आचरण करना चाहिए। यह लोकरूढि के अनुसार आचरण करना जीत - व्यवहार है ।
यहाँ सम्भवतः एक आक्षेप जैन विचारणा पर किया जा सकता है, वह यह है कि, आगम, श्रुत, एवं आज्ञा के पश्चात् स्व-विवेक को स्थान देकर मानवीय बुद्धि के महत्व का समुचित अंकन नहीं किया गया है । लेकिन यह मान्यता भ्रान्त है । वस्तुतः बुद्धि के जिस रूप को निम्न स्थान दिया गया है वह बुद्धि का वह रूप है जिसमें वासना या राग-द्वेष की उपस्थिति की सम्भावना बनी हुई है । सामान्य साधक जो वासनात्मक जीवन या राग द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाया उसके स्व-विवेक के द्वारा किंकर्तव्य मीमांसा में गलत निर्णय की सम्भावना बनी रहती, बुद्धि की इस अपरिपक्व दशा में यदि स्व-निर्णय का अधिकार प्रदान कर दिया जावे तो यथार्थ कर्तव्यपथ से च्युति की सम्भवना ही अधिक होती हैं । यदि मूल शब्द धारणा को देखें तो यह अर्थ और भी स्पष्ट हो जाता है । धारणा शब्द विवेक बुद्धि या निष्पक्ष बुद्धि की अपेक्षा आग्रह- बुद्धि का सूचक है और आग्रह- बुद्धि में स्वार्थपरायणता या रूढता के भाव ही प्रबल होते हैं, अतः ऐसी आग्रह बुद्धि को किंकर्तव्यमीमांसा में अधिक उच्च स्थान प्रदान नहीं किया जा सकता। साथ ही यदि धारणा या स्व-विवेक को अधिक महत्व दिया जावेगा तो नैतिक प्रत्ययों की सामन्यता या वस्तुनिष्ठता समाप्त हो जायेगी और नैतिकता के क्षेत्र में वैयक्तिकता का स्थान ही प्रमुख हो जावेगा। दूसरी और यदि हम देखें तो आज्ञा, श्रुत और आगम भी अबौद्धिक नहीं हैं वरन् उनमें क्रमशः बुद्धि की उज्ज्वलता या निष्पक्षता ही बढ़ती जाती है। आज्ञा देने के योग्य जिस गीतार्थ का निर्देश जैनागमों में किया गया है वह एक ओर देश, काल या परिस्थिति को यथार्थ रूप में समझता है, दूसरी ओर
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आर्यप्र श्री आनन्द
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