Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म और दर्शन
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यह देखने के पहले कि इन दोनों में यह विभिन्नता किस रूप में है, हमें यह भी देख लेना होगा कि इस विभिन्नता का मूल कारण क्या है ? वस्तुतः आचरण का सारा क्षेत्र ही व्यवहार का क्षेत्र है। तत्वज्ञान की नैश्चयिक (पारमाथिक) दृष्टि से तो सारी नैतिकता ही एक व्यावहारिक संकल्पना है, यदि विशुद्ध पारमार्थिक दृष्टि से बन्धन और मुक्ति भी व्यावहारिक सत्य ही ठहरते हैं तो फिर आत्मा को बन्धन में मानकर उसकी मुक्ति के निमित्त किया जाने वाला सारा नैतिक आचरण भी व्यवहार के क्षेत्र में ही सम्भव है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जीव कर्म से बद्ध है तथा जीव कर्म उसका स्पर्श करता है यह व्यवहारनय का वचन है, जीव कर्म से अबद्ध है अर्थात् न बंधता है और न स्पर्श करता है। यह निश्चय (शुद्ध) नय का कथन है । अर्थात् आत्मा का बंधन और मुक्ति यह व्यवहारसत्य है। परमार्थ-सत्य की दृष्टि से न तो बंधन है और न मुक्ति । क्योंकि बंधन और मुक्ति सापेक्ष पद ही है। यदि बंधन नहीं तो मुक्ति भी नहीं। आगे आचार्य स्वयं कहते हैं कि आत्मा का बंधन और अबंधन यह दोनों ही दृष्टि सापेक्ष हैं, नय पक्ष हैं, परम तत्त्व समयसार (आत्मा) तो पक्षातिक्रांत है, निविकल्प है। इस प्रकार समस्त नैतिक आचरण व्यवहार के क्षेत्र में होता है यद्यपि नैतिक जीवन का आदर्श इन समस्त दृष्टियों से परे निविकल्पावस्था में स्थित है--अतः आचार के क्षेत्र में निश्चय दृष्टि का प्रतिपादन नैतिकता के आदर्श निर्विकल्पावस्था या वीतरागदशा जिसे प्रसंगांतर से मोक्ष भी कहा जाता है कि अपेक्षा से ही हुआ है, जबकि तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय दृष्टि का आधार भिन्न है। तत्वज्ञान का काम मात्र व्याख्याओं का प्रस्तुतीकरण है जबकि आचार दर्शन का काम यथार्थता की उपलब्धि करा देना है। तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार
तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि का काम सत्ता के उस यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करना होता है जो देशकाल आदि से निरपेक्ष है। निश्चयदृष्टि सत्ता के उस यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करती है जो सत्ता की स्वभाव दशा है, उसका मूल स्वरूप है या स्व-लक्षण है, जो किसी देश-कालगत परिवर्तन में भी उसके सार के रूप में बना रहता है। जैसे निश्चयदृष्टि से आत्मा ज्ञानस्वरूप है, साक्षी है, अकर्ता है। निश्चयदृष्टि द्रव्यदृष्टि है जो सता के मूलतत्त्व की ओर ही अपनी निगाह जमाती है और उसकी पर्यायों पर ध्यान नहीं देती है। निश्चयदृष्टि से स्वर्णाभूषणों में निहित स्वर्णतत्व ही मूल वस्तु है, फिर चाहे वह स्वर्ण कंकण हो या मुद्रिका हो। निश्चयदृष्टि से दोनों में अभेद ही है, दूसरे शब्दों में निश्चयनय अमेद गामी है। निश्चय दृष्टि, द्रव्य दृष्टि या इस अभेदगामी दृष्टि से आत्मा चैतन्य ही है, अन्य कुछ नहीं। न वह जन्म लेता है, न मरता है, न वह बद्ध है, न वह मुक्त है, न वह स्त्री है, न वह पुरुष है, न वह मनुष्य है, न पशु है, न देव है, न नारक है । तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि सत्ता के उस पक्ष का प्रतिपादन करती है जिस रूप में वह प्रतीत होती है, वह सत्ता के आगन्तुक लक्षणों को प्रगट करती है जो स्थायी नहीं है
१ जीवे कम्मं बद्धं पुढें चेदि ववहारणय भणिदं ।
सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धं हवइ कम्मं ।। कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाणपक्खं । पक्खातिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥
-समयसार-१४१ । १४२ (संस्कृत टीकावाली प्रति से) २ अथ पूनर्बहब्यक्तेरनेक विशेषस्याभेदता भेदराहित्यं तदपि निश्चयविषयम, द्रव्यस्य पदार्थस्य
यन्नर्मल्यं तदपि निश्चय विषयम्, नैर्मल्यं तु विमलपरिणतिः बाह्यनिरपेक्ष परिणामः सोऽपि निश्चयानयाऽर्था बोद्धव्यः ।
—अभि० रा०४। २०५६
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