Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें?
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तत्त्व
कुन्दकुन्द कहते हैं कि जिस प्रकार किसी अनार्य जन को उसकी अनार्य भाषा के अभाव में वस्तुस्वरूप समझाने में कोई भी आर्यजन सफल नहीं होता, उसे यथार्थ का ज्ञान कराने के लिए उसी की भाषा का अवलम्बन लेना होता है, इसी प्रकार व्यवहार दृष्टि के अभाव में व्यवहार जगत में रहने वाले प्राणियों को परमार्थ का बोध नहीं कराया जा सकता।'
आचार्य कुन्दकुन्द के ही उपरोक्त रूपक को ही लगभग समान शब्दों में ही शून्यवादी बौद्ध आचार्य नागार्जुन भी प्रस्तुत करते हैं । २ यही नहीं, समकालीन भारतीय विचारकों में प्रो० हरियन्ना तथा पाश्चात्य विचारक ब्रेडले भी परमार्थ (Reality) के ज्ञान लिए आभास (व्यवहार Apearances) की उपादेयता को स्वीकार करते हैं किन्तु विस्तारभय से उनके विस्तृत विचारों को यहाँ प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं । वास्तविकता यह है कि व्यवहार के बिना परमार्थ का बोध नहीं हो सकता और परमार्थ या निश्चयदृष्टि का बोध हुए विना निर्वाण रूपी नैतिक आदर्श की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः पक्षातिक्रान्त नैतिक आदर्श निर्वाण तत्व-साक्षात्कार आत्म-साक्षात्कार के लिए परमार्थ और व्यवहार दोनों को जानना आवश्यक है, मात्र यही नहीं, दोनों को जानकर छोड़ देना भी आवश्यक हैं।
तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन के क्षेत्र में व्यवहार और परमार्थ का अन्तर जैन परम्परा में व्यवहार और निश्चय नामक जिन दो दृष्टियों का प्रतिपादन किया गया है, वे तत्वज्ञान और आचारदर्शन, दोनों क्षेत्रों के लिए स्वीकार की गई हैं, फिर भी आचारदर्शन
और तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय (परमार्थ) और व्यवहार दृष्टि का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है।
पं० सुखलाल जी इस अन्तर को स्पष्ट करते हए लिखते हैं-जैन परम्परा में जो निश्चय और व्यवहार रूप से दो दृष्टियाँ मानी गई हैं वे तत्वज्ञान और आचारदर्शन दोनों क्षेत्रों में लागू की गई हैं। इधर सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैनदर्शन में भी तत्वज्ञान और आचार दोनों का समावेश है। जब निश्चय, व्यवहार नय का प्रयोग तत्वज्ञान और आचार दोनों में होता है तब सामान्य रूप से शास्त्रचिन्तन करने वाला यह अन्तर जान नहीं पाता कि तत्वज्ञान के क्षेत्र में किया जाने वाला निश्चय और व्यवहार का प्रयोग आचार के क्षेत्र में किये जाने वाले प्रयोग से भिन्न है और भिन्न परिणाम का सूचक भी है। तत्वज्ञान की निश्चयदृष्टि आचारविषयक निश्चयदृष्टि दोनों एक नहीं हैं। इसी तरह उभय विषयक व्यवहारदृष्टि के बारे में भी समझना चाहिए। मैं इतना ही सूचित करना चाहता हूँ कि निश्चय और व्यवहारनय यह दो शब्द भले ही समान हों फिर भी तत्वज्ञान और आचार के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न अभिप्राय से लागू होते हैं और हमें विभिन्न परिणामों पर पहुंचाते हैं।
१ जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं ।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। (यथा नापि शक्यो नार्या नार्यभाषां बिना ग्राहयितुम ।
तथा व्यवहारेण बिना परमार्थोपदेशनमशक्यम्) २ नान्यया भाषया म्लेच्छ शक्यो ग्राहीयेतुं यथा ।
न लोकिकमुते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा ।। व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थो न देश्यते ।
परमार्थमनागम्य निर्वाण नाधिगम्यते । ३ दर्शन और चिन्तन पृ०-५००
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आचार्गप्रशानन आचार्य अभिला श्रीआनन्द श्रीआनन्दन
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