Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्री विजय मुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न
[धर्म एवं दर्शन के प्रकांड पंडित, 'विश्वदर्शन की रूप-रेखा' जैसे गंभीर ग्रन्थों के L लेखक । कुशल पद्यकार, कथा शिल्पी, प्रभावशाली प्रवक्ता, चिंतक एवं प्रबुद्ध मनीषी] |
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भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त
आध्यात्मिक पृष्ठभूमि भारतीय दर्शन फिर भले ही वह किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न रहा हो, उसका मूल स्वर | अध्यात्मवाद रहा है। भारत का एक भी इस प्रकार का कोई सम्प्रदाय नहीं है, जिसके दर्शन-शास्त्र । में आत्मा, ईश्वर और जगत के सम्बन्ध में विचारणा न की गई हो। आत्मा का स्वरूप क्या है ? ईश्वर का स्वरूप क्या है ? और जगत की व्यवस्था किस प्रकार होती है ? इन विषयों पर भारत की प्रत्येक दर्शन-परम्परा ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार किया है । जब आत्मा की विचारणा होती है, तब स्वाभाविक रूप से ईश्वर की विचारणा हो ही जाती है । इन दोनों की विचारणा के साथ जगत की विचारणा भी आवश्यक हो जाती है । दर्शन-शास्त्र के ये तीन ही विषय मुख्य माने गए हैं। आत्मा चेतन है, ज्ञान उसका स्वभाव है, इस सत्य को सभी ने स्वीकार किया है । उसकी अमरता के सम्बन्ध में भी किसी को सन्देह नहीं है। भारतीय-दर्शनों में एक मात्र चार्वाक-दर्शन ही इस प्रकार का है, जो आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं मानता । वह आत्मा को भौतिक मानता है, . अभौतिक नहीं । जब कि समस्त दार्शनिक आत्मा को एक स्वर से अभौतिक स्वीकार करते हैं। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में और उसकी अमरता के सम्बन्ध में किसी भी भारतीय दार्शनिकपरम्परा को संशय नहीं रहा है। आत्मा के स्वरूप और लक्षण के सम्बन्ध में तथा संख्या के सम्बन्ध में भेद रहा है, पर उसके अस्तित्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रहा। ईश्वर के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि किसी-न-किसी रूप में सभी दार्शनिकों ने उसके अस्तित्व को स्वीकार किया है, परन्तु ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में तथा लक्षण के सम्बन्ध में पर्याप्त भेद रहा है। जगत के अस्तित्व के सम्बन्ध में किसी भी दर्शन-परम्परा को सन्देह नहीं रहा। चार्वाक भी जगत के अस्तित्व को स्वीकर करता है। अन्य सभी दर्शन-परम्पराओं ने जगत के अस्तित्व को स्वीकार किया है, और उसकी उत्पत्ति एवं रचना के सम्बन्ध में अपनी-अपनी पद्धति से विचार किया है। किसी ने उसका आदि और अन्त स्वीकार किया है, और किसी ने उसे अनादि और अनन्त माना है।
दर्शन-शास्त्र सम्पूर्ण सत्ता के विषय में कोई धारणा बनाने का प्रयत्न करता है । उसका उद्देश्य विश्व को समझना है । सत्ता का स्वरूप क्या है ? प्रकृति क्या है ? आत्मा क्या है ? और ईश्वर क्या है ? दर्शन-शास्त्र इन समस्त जिज्ञासाओं का समाधान करने का प्रयत्न करता है । दर्शनशास्त्र में यह भी समझने का प्रयत्न किया जाता है, कि मानव जीवन का प्रयोजन और उसका आचार्मर
भाचार्यप्रवर अभिनन्दन प्रासानन्द-ग्रन्थ2 श्राआनन्दजन्य
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