Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन दर्शन में अजीव तत्त्व
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धर्म-अधर्म जैन साहित्य में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग शुभाशुभ प्रवृत्ति के अर्थ में भी होता है और पृथक् अर्थ में भी । यहाँ पर दूसरा अर्थ विवक्षित है। धर्म द्रव्य गतितत्व और अधर्म द्रव्य स्थितितत्त्व के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भारत के अन्य दार्शनिकों ने इस पर चिन्तन नहीं किया है। विज्ञान में न्यूटन ने गतितत्त्व (Medium of Motion) को माना है। अलवर्ट आईस्टीन ने गतितत्त्व को मानते हुए कहा-'लोक परिमित है, लोक के परे अलोक अपरिमित है, लोक का परिमित होने का कारण गतितत्त्व यहाँ पर है और वह द्रव्य शक्ति है, लोक के बाहर नहीं जा सकती।' लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है जो गति में सहायक है। ईथर (Ether) को भी गतितत्त्व माना है। जैनदर्शन में धर्म और अधर्म शब्द पारिभाषिक रहा है।
धर्म और अधर्म द्रव्य दोनों द्रव्य से एक हैं और व्यापक हैं । 3 3 क्षेत्र से लोक प्रमाण है।३४ काल से अनादि-अनन्त हैं । भाव से अमूर्त हैं। गुण से धर्म गति-सहायक है और अधर्म स्थितिसहायक है।
धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य तीनों कालों में अपने गुण और पर्यायों से विद्यमान रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही होते हुए भी उनकी पृथक् उपलब्धि है। दोनों का स्वभाव और कार्य भिन्न है, सत्ता में विद्यमान हैं, लोक व्यापक हैं। धर्म-अधर्म तो अनादि काल से अपने स्वभाव से लोक में विस्तृत है । ५ जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य परद्रव्य की निमित्तभूत सहायता से क्रियावंत होते हैं। शेष चार द्रव्य क्रियावंत नहीं है।३६ धर्म, अधर्म द्रव्य निष्क्रिय हैं, धर्म और अधर्म द्रव्य जीव, पुद्गल के लिए सिर्फ सहायक बनते हैं। ३७ हलन-चलन या स्थितिकरण क्रिया इन दो द्रव्य के अभाव में नहीं हो सकती। ये गति और स्थिति के उदासीन कारण हैं। ये स्वयं क्रियाशील नहीं हैं । तैरने में जल मछलियों के लिए माध्यम है वैसे ही गति में धर्म द्रव्य सहायक है। अधर्म द्रव्य भी वृक्ष की छाया की भांति पथिक को विश्राम में सहायक हैं। गतितत्त्व के लिए 'रेल की पटरी का उदाहरण दे सकते हैं। रेल की पटरी गाड़ी चलाने में सहायक है । वह गाड़ी को यह नहीं कहती कि तू चल, वैसे ही धर्म द्रव्य है । जहाँ तक पटरी है वहाँ तक ही रेलगाड़ी जा सकती है, आगे नहीं । लोक में धर्म के आधार से हम गमन कर सकते हैं, लोक से बाहर नहीं।
आकाश आकाश लोक और अलोक दोनों में है।३८ अन्य द्रव्यों के समान आकाश भी तीनों काल में अपने गुण और पर्यायों सहित विद्यमान है। उसका स्वभाव है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को अवकाश देना ।३६ पाँच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं। आकाश के प्रदेश में वे
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३३ स्थानांग०१ ३४ (क) भगवती० २।१०
(ख) उत्तराध्ययन ३६७ ३५ पंचास्तिकाय-जयसेनाचार्य की टीका ३६ पंचास्तिकाय-जयसेनाचार्य की टीका १६८ ३७ पंचास्तिकाय-बालावबोध टीका ३८ (क) स्थानांग ५।३।४४२
(ख) उत्तराध्ययन ३६।८ ३६ (क)उत्तराध्ययन २८६
(ख) पंचास्तिकाय ११६०
mamatarMADAAIIANORKadwasnasasarawaiswasnasRIMARRARAMJAAAAAAMANASAILIMJAILASAKARMADAamannaos
प्रवरब अभियान आभन्न प्राआनन्दायथागाAMMAR
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