Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
आचार्य प्रव
310
फ्र
श्री आनन्द अन्
२४६
मिलजुल कर रह सकते हैं । पाँच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं। बिना आकाश के वे नहीं रह सकते । आकाश में अनन्त पुद्गलों को स्थान देने की शक्ति है । महासागर में जैसे नमक रहता वैसे ही अन्य द्रव्य आकाश में रहते हैं ।
ग्रन्थ
धर्म और दर्शन
अकाश के दो भेद हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश । अलोकाकाश में आकाश द्रव्य के अतिरिक्त कोई भी द्रव्य नहीं है । धर्म और अधर्म द्रव्य का कार्य आकाश नहीं करता किन्तु वह केवल अवकाश देता है ।
लोक और अलोक
जैन साहित्य में इसकी अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोक है । ४० पंचास्तिकायमय लोक है । ४१ जीवाजीव लोक है । ४२ षट्द्रव्यात्मक लोक है । ४३ अपनीअपनी दृष्टि से ये परिभाषाएँ हैं । लोक इन्द्रिय गोचर है और अलोक इन्द्रियातीत है । अलोकाकाश में गति और स्थिति नहीं है । आकाश द्रव्य अपने ही आधार से अपने ही अवकाश में है ।
कालद्रव्य
द्रव्यों की वर्तना, परिणाम- क्रिया या नवीनत्त्व काल के कारण ही संभव है ।४४ काल तो दिखलाई नहीं देता, इसलिए उसका अनुमान आकाश की तरह सिद्ध होता है। कितने ही आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर जीवाजीव की पर्याय मानते हैं । उपचार से उसे द्रव्य कहते हैं । ४५ भगवती 'काल को स्वतंत्र द्रव्य माना है । ४६ कुन्दकुन्द लिखते हैं 'काल-द्रव्य परिवर्तन - लिंग से संयुक्त है । ४७ कालाणु संख्या में लोकाकाश के प्रदेशों की तरह असंख्यात है । ४5 श्वेताम्बर परम्परा में कालद्रव्य को अनन्त माना है । ४६ रहट - घटिका के समान वह निरन्तर घूमता रहता है । इसलिए अनादि अनन्त है ।
Jain Education International
काल-द्रव्य अस्तिकाय नहीं, अखण्ड है । समस्त विश्व में एक काल युगपत् है । निश्चय और व्यवहार के रूप में उसके दो भेद हैं । व्यवहार काल को 'समय' कहते हैं, वर्तना निश्चय काल से होती है । सामान्य परिवर्तन व्यावहारिक काल से है । समय का प्रारम्भ और अन्त दोनों होते हैं । निश्चयकाल नित्य है, निराकार है । दिन, मास, ऋतु, वर्ष आदि काल के व्यावहारिक भेद हैं । ० निश्चय काल का कोई भी भेद नहीं है ।
४०
४१
४२ (क) उत्तराध्ययन ३६
(ख) स्थानांग ० २४
भगवती० २।१०
भगवती० १३।४
४३
उत्तराध्ययन० २८
४४ तत्त्वार्थसूत्र ५।२२
४५
४६
४७
४८ द्रव्य संग्रह २२
४६
५०
नव तत्त्व० प्र० – देवेन्द्रसूरि
भगवती० २५४ २५ २ पंचास्तिकाय १।६।२२, २४
सप्ततत्त्वप्रकरण – देवेन्द्रसूरि (क) द्रव्यसंग्रह २१
पंचास्तिकाय १।१००,१०१
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org