Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त
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परलोकवाद अथवा जन्मान्तरवाद कर्मवाद के सिद्धान्त का फलित रूप हैं। कर्म का सिद्धान्त यह मांग करता है कि शुभ कर्मों का शुभ फल मिले और अशुभ कर्मों का अशुभ फल मिले। लेकिन सभी कर्मों का फल इसी जन्म में मिलना संभव नहीं है। अतः कर्मफल को भोगने के लिए दूसरा जीवन या जन्म आवश्यक है।
भारतीय-दर्शन के अनुसार यह संसार जन्म और मरण की अनादि शृंखला है । इस जन्ममरण का कारण क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में सांख्य-दर्शन में कहा गया है कि प्रकृति और पुरुष का भेद-ज्ञान न होना ही इसका कारण है। न्याय और वैशेषिक-दर्शन में कहा गया कि जन्म और मरण का कारण जीव का अज्ञान ही है । वेदान्त-दर्शन में कहा गया कि अविद्या अथवा माया ही इसका मुख्य कारण है। बौद्ध-दर्शन में कहा गया, कि वासना के कारण ही जन्म-मरण होता है। जैन-दर्शन में कहा गया कि कर्म-बद्ध संसारी आत्मा का जो बार-बार जन्म-मरण होता है, उसके पाँच कारण हैं.-१. मिथ्यात्व-भाव, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय तथा ५. शुभ और अशुभ योग । सामान्य भाषा में जब तत्त्व-ज्ञान से अज्ञान का नाश हो जाता है तब संसार का भी अन्त आ जाता है। भारतीय-दर्शनों में भी कहा गया है, कि संसार एक बन्धन है, इस बन्धन का आत्यन्तिक नाश आत्मा के शुद्ध स्वरूप-मोक्ष-से ही होता है। बन्धन का कारण अज्ञान है और इसीसे संसार की उत्पत्ति होती है। इसके कारण मोक्ष का कारण तत्त्व-ज्ञान है। तत्त्व-ज्ञान के हो जाने पर संसार का भी अन्त हो जाता है। इस प्रकार तत्त्व-ज्ञान और उसका विपरीत भाव अज्ञान, अविद्या, माया, वासना और कर्म को माना गया है।
जन्मान्तर, भवान्तर, पुनर्जन्म और परलोक का अर्थ है-मृत्यु के बाद आत्मा का दूसरा शरीर धारण करना। चार्वाक-दर्शन ने यह माना था कि शरीर के विनाश के साथ चेतन-शक्ति का भी विनाश हो जाता है। परन्तु आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले दार्शनिकों का कहना है कि शरीर के नाश होने से आत्मा का नाश नहीं होता। इस वर्तमान शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा बना रहता है, और पूर्वकृतकर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को दूसरा जन्म धारण करना पड़ता है। दूसरा जन्म ग्रहण करना ही पुनर्जन्म कहा जाता है। पशु, पक्षी, मनुष्य, देव और नारक आदि अनेक प्रकार के जन्म ग्रहण करना यह संसारी आत्मा का आवश्यक परिणाम है। आत्मा अनेक जन्म तभी ग्रहण कर सकता है जब वह नित्य और अविच्छिन्न हो। सभी आस्तिकदर्शन आत्मा की नित्यता को स्वीकार करते हैं।
चार्वाक-दर्शन शरीर, प्राण अथवा मन से भिन्न आत्मा जैसी नित्य वस्तु को स्वीकार नहीं करता। अतः उसके मत में जन्मान्तर अथवा पुनर्जन्म जैसी वस्तु मान्य नहीं है। बौद्ध-दार्शनिक आत्मा को क्षणिक विज्ञानों की एक सन्तति मात्र मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा क्षण-क्षण में बदलता है। जो आत्मा पूर्व क्षण में था, वह उत्तर क्षण में नहीं रहता। इस प्रकार नदी के प्रवाह के समान वे चित्त-सन्तति के प्रवाह को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि आत्मा की सन्तति नित्य प्रवहमान रहती है। इस प्रकार क्षणिकता को स्वीकार करने पर भी वे जन्मान्तर और पुनर्जन्म को भी स्वीकार करते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार एक विज्ञान सन्तान का अन्तिम विज्ञान सभी पूर्व विज्ञानों की वासनाओं को आत्मसात् करता है, और एक नया शरीर धारण कर लेता है। बौद्ध पत के अनुसार वासना को संस्कार भी कहा गया है। इस प्रकार बौद्धदार्शनिक आत्मा की नित्यता तो नहीं मानते, लेकिन विज्ञान-सन्तान की अविच्छन्नता को अवश्य ही स्वीकार करते हैं। जैन-दार्शनिक आत्मा को केवल नित्य नहीं, परिणामी-नित्य मानते हैं। आत्मा द्रव्यदृष्टि आपाप्रaa
आचार्य आजम
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