Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आपाप्रवाभिमाचार्यप्रवभिन्न श्राआनन्द
श्रीआनन्द अन्य
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वास्तव में ही धन मानव के लिये महान दुःखों का कारण बनता है। उसके लालच में आकर वह झूठ बोलता है, चोरी करता है तथा हत्या जैसे महापाप से भी नहीं बच पाता। वह नाना प्रकार की यातनायें सहकर तथा गरीबों का शोषण करके भी धनवान बनना चाहता है, क्योंकि उसे संसार के सारे सुखों का खजाना धन में ही दिखाई देता है।
बंधुओ ! क्या धन से मनुष्य की आत्मा को कभी तृप्ति, शांति और निराकूलता प्राप्त हुई है ? धन के द्वारा सुख की आकांक्षा करना क्या मृगतृष्णा के समान नहीं है ? अगर ऐसा न होता तो सिकन्दर महान् मृत्यु के समय अपने समस्त धन का अम्बार लगाकर उस पर अश्रुपात करता हुआ क्यों कहता'हाय इसी सम्पत्ति के लिये मैंने जीवन भर भयंकर संग्राम किये, लाखों माताओं को पुत्रहीन बनाया, सौभाग्यवती नारियों का सुहाग लूटा, पर अंत में यह मेरे साथ नहीं चल सकी।'
सिकन्दर की अंतिम आज्ञा यही थी कि मेरे दोनों हाथ कफन के बाहर रखना, ताकि मेरी शवयात्रा में साथ रहने वाले सब लोग जान लें कि मैं खाली हाथ जा रहा हूँ और मेरे समान ही मुर्खता वे न करें।
कितना मर्मस्पर्शी उदाहरण है ? वास्तव में ही धन कितना भी क्यों न इकट्ठा कर लिया जाये, छह खंड को राज्य भी क्यों न मिल जाये, उससे मानव की आत्मा शांति का अनुभव नहीं कर सकती। सुख का वास्तविक और अक्षय कोष तो आत्मा में ही है और समस्त धन-लिप्सा को त्यागकर के आत्मा में रमण करने पर ही वह प्राप्त हो सकता है।
मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि मानव तभी शांति अनुभव कर सकता है, जबकि वह समस्त बाह्य पदार्थों के प्रति रही हुई अपनी आसक्ति और कामनाओं का त्याग कर दे तथा विचार करे कि मुझे मनुष्यजन्म किसलिये मिला है ? इस जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिये? तथा इस लक्ष्य की पूर्ति किन साधनों से हो सकती है।
सत्य तो यह है कि जीवन को उच्च, पवित्र, समतामय एवं सुखमय बनाने के लिये इन्द्रियों को वश में करना अनिवार्य है। किन्तु इन्द्रियों का स्वामी मन हैं और जब तक मन वश में नहीं हो जाता, इन्द्रियां वश में नहीं हो पातीं तथा आत्मसंयम के अभाव में आत्मिक सुख पाने की कामना गूलर का फूल बनकर रह जाती है । इसीलिये शास्त्र में कहा गया है
एगे जिए जिआ पंच पंच जिए अजिा दस । दसहा उ जिणित्ताणं सव्व सत्तू जिणामहं ।।
--उत्तराध्ययन सूत्र २३ । एक (मन) को जीत लेने पर पाँच (इन्द्रियों) को जी तलिया जाता है और पांच को जीत लेने पर दस अर्थात् एक मन, पांच इन्द्रियाँ और चार कषाय-जीत लिये जाते हैं। इन दसों को जिसने जीत लिया उसने सभी आत्मिक शत्रुओं को जीत लिया।
जो भव्यजीव भगवान के इस आदेश को सुनकर सचेत हो जाते हैं वे ही जीवन के रहस्य को समझ कर आशा और तृष्णा पर विजय प्राप्त करते हैं तथा सांसारिक पदार्थों की नश्वरता और सांसारिक सम्बन्धों की विच्छिन्नता को समझते हैं । उन्हीं व्यक्तियों का चित्त निर्मल, भावना शुद्ध और क्रियायें निष्कपट बनती हैं। उनके हृदयों में जीवमात्र के प्रति असीम करुणा और प्रेम का अजस्र प्रवाह बहने लगता है। परिणाम यह होता है कि उनके द्वारा किसी भी प्राणी का अनिष्ट नहीं होता तथा ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर ही उन के संयम का विकास होता है जो कि धर्म का दूसरा रूप है।
संयम जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। उस के सद्भाव में बाह्य सौन्दर्य कितना भी बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो, फीका और निस्सार मालूम देता है । जो व्यक्ति आत्मिक सौन्दर्य का महत्त्व समझ लेता है, वह
जया
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