Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
आयायप्रवरुप अभिनंद ! श्री आनन्दन ग्रन्थ
3827
आचार्य प्रव श्री आनन्द ग्रन्थ
२१८ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
.
है जो क्रोध, मान, माया, लोभ तथा राग-द्वेष आदि का सर्वथा त्याग कर चित्त को शुद्ध बनाये तथा समस्त सांसारिक पदार्थों से विमुख होकर दान, शील, तप और भाव की आराधना करे । जो प्राणी अपने विद्या, बल, बुद्धि, धन, जाति, कुल या प्रभुत्व के मद में चूर रहते हैं, उनके लिए मुक्ति पाना कठिन ही नहीं, असम्भव है।
क्रोध आदि कषायों के द्वारा आत्मा का जितना अहित होता है, उतना अन्य किसी भी शत्रु द्वारा नहीं होता है। कषायों के द्वारा जिसकी आत्मा कलुषित है, उसमें ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि सम्भव नहीं हैं, जैसे काले कम्बल पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ता है। जिसकी आत्मा पर कपायों का अधिकार हो जाता है तो उससे सद्गुण एक-एक कर नष्ट हो जाते हैं। कहा है
कोहो पीई पणासेइ माणो विषय नासणो । माया मिलाणि नासेड, लोभो सभ्य विणासणो ॥
दशर्वकालिक अ
क्रोच प्रीति का नाश कर देता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ समस्त सद्गुणों का नाश कर देता है ।
ये कषाय तीव्र हलाहल विष हैं। विष तो एक बार प्राणों का नाश करता है, किन्तु कपाय मनुष्य को जन्मजन्मांतरों तक पीड़ा देते रहते हैं। रूपायों के आवेश में व्यक्ति उचित-अनुचित का मान भूल जाता है । नाना प्रकार के घृणित, अशोभनीय और हानिकारक कार्य कर बैठता है तथा उस अवस्था में दूसरों का नहीं, वस्तु अपना ही अहित करता है जब तक क्रोध आदि कपाय मन में रहते हैं तब तक पण्डित और मुर्ख में कोई अन्तर नहीं रहता है। इस सम्बन्ध में तुलसीदास जी की यह मार्मिक उक्ति सुनिये -
काम, क्रोध, मद, लोभ की जब लों मन में खान । तब लों पंडित मूरखा तुलसी एक समान ॥
कपायों को बढ़ाने से तथा उनके वश में हो जाने से दुर्गुणों का संचय होता है और मुक्तिप्राप्ति की आशा अनन्त के गर्भ में विलीन हो जाती है। कषायों द्वारा उपार्जित कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को बार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है और न जाने किस-किस योनि में आत्मा दुख पाती हुई भटकती रहती है। इसीलिए आत्मा का हित चाहने वालों को मोक्ष प्राप्ति में अन्तराय रूप क्रोधादि कपायों का त्याग कर देना चाहिए । जब तक कषायों का संयोग आत्मा के साथ है, मोक्ष प्राप्ति असम्भव है ।
Jain Education International
हाँ, सम्भव केवल उन्हीं को है जो क्रोध आदि कषायरूप शत्रुओं का उन्मूलन करने के लिए सतत जागरूक रहते हैं और मोहनिद्रा में पड़े रहकर अपने मानव जीवन को एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाते हैं । वीतराग प्रभु मोहनिद्रा में सोये हुए प्राणियों को उद्बोधन देते हुए कहते हैंदुमपत्तए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम मा पमायए ।।
६ इतरयम्मि आउए जीवियए बहुपरवायए । विहणाहि रयं पुरे कंडं समयं गोयम मा मायए ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र
जैसे वृक्ष के पत्ते पीले पड़ते हुए समय आने पर झड़ जाते हैं, उसी प्रकार मानव जीवन भी आयु शेष होने पर समाप्त हो जाता है । अतः हे जीव ! समय भर का भी प्रमाद न कर ।
आयु नाशवान और स्वल्प है और जीवन में विघ्न बहुत है। अतएव पूर्वसंचित कर्म रूपी रज को शीघ्र दूर कर । हे जीव ! समय मात्र के लिए भी प्रमाद मत कर ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org