Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ऊँधै मत बटोही !
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ललाट पर अपयश का टीका भी लगा देते हैं। इन्द्रियाँ पाँच हैं और पाँचों ही अपनी-अपनी तृप्ति की माँग करने में लगी रहती हैं। उसका परिणाम होता है
इन्द्रियों के वश में होकर मन का गुलाम बनकर, विषयों में फंस के पापी, तन मन व धन है दीना ।
भाइयो ! जगत में आकर यों ही हआ है जीना ।। कवि का कहना यथार्थ है कि इन्द्रियों के वश में होकर तथा मन का गुलाम बनकर जिसने अपना तन, मन और धन सभी कुछ लुटा दिया है उसका इस मानव-जीवन को प्राप्त करना व्यर्थ साबित हुआ है। इसके अनेक उदाहरण हैं।
विनाशकाले विपरीतबुद्धिः कुण्डरीक और पुण्डरीक दो भाई थे। एक ने साधुत्व ग्रहण किया और दूसरे ने राज्य पाया। जो भाई साधु बन गये थे उन्होंने अपने जीवन का अधिक भाग संयम पालन में बिता दिया, किन्तु अन्त में जाकर उनका मन डोल गया और वे अपने भाई के पास आकर अपने हिस्से का आधा राज्य मांगने लगे।
राजा ने अत्यन्त चकित और दुखी होकर कहा
'भगवन् ! यह कैसी बातें करते हैं आप? राज्य बड़ा नहीं है, उसकी अपेक्षा आप अनेक गुने बड़े हैं। आप पाँच महाव्रतधारी साधु हैं। आपके चरणों में तो मेरे जैसे अनेक राजा अपना मस्तक झुकाते हैं । आप ज्ञान, दर्शन और चरित्र के धनी हैं । राजाओं से भी महान हैं।'
किन्तु 'विनाशकाले विपरीत बुद्धिः' यह कहावत चरितार्थ हुई। साधु भाई ने तो अपना आग्रह दोहराया-'मुझे बड़प्पन और महानता नहीं चाहिए । अपना आधा राज्य चाहिए।'
'अगर ऐसा है तो आधा क्या आप पूरा ही राज्य लीजिये तथा अपना पवित्र बाना मुझे प्रदान कर दीजिए।' कहते हुए राजा ने अपने मस्तक से मुकुट उतार कर भाई के मस्तक पर रख दिया और स्वयं साधु वेष धारण कर वन की ओर चल दिया।
इसके बाद हुआ यह कि राज्य लेने वाले भाई का शरीर तो लम्बे काल तक तपस्या करने के कारण निर्बल हो चुका था, पौष्टिक खाद्य पदार्थों को नहीं पचा सका और विषयवासना की तीव्र आसक्ति से बीमार पड़कर केवल तीन दिन के अल्प काल में सातवें नरक का अधिकारी बना और उधर साधुबाना ग्रहण करने वाले भाई ने विचारा-मैंने साधु वेश तो धारण कर लिया, परन्तु जब तक गुरु की प्राप्ति नहीं होती, आहार-पानी कैसे ग्रहण करूँ? इस उत्तम भावना के साथ परिषह सहन करके उसने भी तीन दिन में ही शरीर त्याग दिया और सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति कर ली।
मन की गति कैसी विचित्र होती है। विकृत होने के पश्चात् न वह बाने की कद्र करती है और न ही लोकलज्जा की। क्षणमात्र में ही जीवन भर की साधना को भी धूल में मिलाने की स्थिति
राय आजाती है।
वस्तुतः विषयेच्छाओं की लीला बड़ी अद्भुत और शक्ति अपरम्पार होती है। किन्तु इस उदाहरण से यह आशय नहीं समझ लेना चाहिए कि वासनाओं पर विजय प्राप्त करना तथा मन का निग्रह करना संभव ही नहीं है। अगर ऐसा होता तो संसार में अनेकों महापुरुष तथा तीर्थंकर केवली संसारमुक्त होकर किस प्रकार मोक्ष प्राप्त करते ? मन को वश में किये बिना तो वे आत्मकल्याण के पथ पर एक कदम भी नहीं बढ़ पाते ।
मनोनिग्रह के उपाय संसार के सभी प्राणी एक सरीखे नहीं होते। सभी अपने मन को दृढ़ता से वश में नहीं रख पाते
met amannamurmoniuminummm.in आचावर आत्राचार्यप्रवभिनी
श्रीआनन्दप श्रीआनन्द
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