Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मुझसे न हो पायें और धन के अभाव में दान का लाभ भी न उठा सकें, पर मैं चाहता हूँ कि गुणज्ञ पुरुषों की सेवा अपनी शक्ति के अनुसार करूँ और उससे ही मन में असीम प्रसन्नता का अनुभव करूँ।
- इसके साथ ही गुणानुरागी विचार करता है कि मैं कृतघ्न न होऊँ यानी दूसरे के द्वारा किये हुए उपकार को भूल न जाऊँ और उसके प्रति कभी भी बुरी भावना भी पैदा न हो। दुनिया में चाहे अवगुणही-अवगुण भरे हों लेकिन मेरी दृष्टि गुणों पर ही जाये, मेरे मन में गुण देखने की वृत्ति बनी रहे। गुणानुरागी व्यक्ति के बारे में एक उर्दू के शायर ने कहा है
जो भले हैं वह बुरों को भी भला कहते हैं।
अच्छे न बुरा सुनते हैं न बुरा कहते हैं । पाश्चात्य विद्वान एमर्सन का कथन है
'प्रत्येक मनुष्य जिससे मैं मिलता है, किसी-न-किसी रीति से मुझसे श्रेष्ठ होता है। इसलिए मैं उससे शिक्षा लेता हूँ।'
गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जिज्ञासा होती है कि एक विद्वान को ऐसा सोचने की क्या आवश्यकता है? उसे अन्य व्यक्ति से क्या लेना है ? पर नहीं, संसार में गुण अनन्त है और एक व्यक्ति यह समझे कि मैं अपनी बुद्धि से पढ़-लिख कर ज्ञानी बन गया, अब मुझे और कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है, तो यह उसकी भूल है। प्रत्येक छोटे-से-छोटे व्यक्ति में भी कोई-न-कोई गुण अवश्य होता है । इतना ही नहीं, सच्चे गुणग्राही पुरुष तो पूर्ण निर्गुण से भी शिक्षा लेने से नहीं चूकते हैं।
एक बार लुकमान हकीम से किसी व्यक्ति ने पूछा'आपने तमीज किससे सीखी ?' लुकमान ने सहज भाव से उत्तर दिया-'बदतमीजों से ।' 'वह कैसे ?' व्यक्ति ने साश्चर्य प्रश्न किया। 'क्योंकि मैंने उन लोगों में जो कुछ बुरी बातें देखीं, उनसे परहेज किया ।'
उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जिस व्यक्ति की वास्तव में गुणदृष्टि होती है, वह बुराइयों में से भी अच्छाइयाँ खोज लेते हैं। पर ऐसे महापुरुष तो कदाचित् ही मिलते हैं। साधारणतया तो हम इससे उलटा ही देखते हैं।
आपने प्रायः सुना होगा कि जवासिया एक छोटा-सा पेड़ होता है। वर्षा ऋतु में जबकि सारी
री-भरी हो जाती है, वह सूख जाता है और जब ग्रीष्म ऋतु आती है तथा धरती पर के सभी लहलहाते वृक्ष सुखने लगते हैं, उनके पत्ते झड़ते हैं, तब वह हरा-भरा हो जाता है। अर्थात् पृथ्वी पर के फले-फूले और हरे-भरे वृक्षों को वह नहीं देख सकता तथा ईर्ष्या की आग के मारे स्वयं भी सुख जाता है, पर जब अन्य वृक्ष सूखने लगते हैं तो उसे इतनी खुशी होती है कि स्वयं ही लहलहा उठता है ।
यही हाल इन्सान का भी है । संसार में बहुत कम ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो औरों की उन्नति देखकर सच्ची खुशी का अनुभव करते होंगे । एक सुभाषित में कहा गया है
नागुणी गुणिनं वेत्ति गुणी गुणिषु मत्सरी।
गुणी च गुणरागी च दुर्लभः सरलो जनः ।। इसका अर्थ है-अवगुणी व्यक्ति गुणवानों को नहीं जान सकता । यानी जिसमें स्वयं ही गुण नहीं हैं वह गुणियों की परख कैसे कर सकता है ? गुणवानों को तो गुणवान ही पहचान सकते हैं । किन्तु दुःख की बात है कि गुणवान जो होते हैं, वे गुणवानों को जानकर भी उनका आदर नहीं करते तथा उनकी सराहना करने के बदले उलटा मत्सर भाव रखते हैं । एक विद्वान दूसरे विद्वान को देखकर ईर्ष्या करता है और एक श्रीमंत दूसरे श्रीमंत की धनवृद्धि से जलता है ।
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