Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ऊँधै मत बटोही !
२१६
सन्त महात्मा भी सदा आपको यही उपदेश देते हैं और मोह तथा प्रमाद का भान भुला देने वाली निद्रा से जगाने का प्रयत्न करते हैं । कहते हैं
ऊँघ मत पंथी जन ! संसार है अटवी वन,
काया रूपी नगर में रहे काम चोर है । जीव है बटाउ यामें आयकर वास कियो,
ठगिनि हैं पांच याँ को मुलक में सोर है। ज्ञानादिक गुण रूप रतन अमोल धर्म,
ऊँघ तो ले जाय लूट मिथ्यातम घोर है । तिलोक कहत सद्गुरु चौकीदार सोख,
धार रे! बटाऊ ऊँघं मती भई भोर है। कितना सुन्दर पद्य है। जिस प्रकार एक चौकीदार गश्त लगाते हए जिस घर के दरवाजे खुले देखता है, फौरन उस घर वालों को दरवाजा बन्द करने और सावधान रहने की चेतावनी देता है, ठीक उसी प्रकार कविकुल-भूषण संत तिलोकऋषि जी महाराज जीव को जगाते हैं, उसे सचेत करते हैं। कहते हैं
__'अरे पथिक ! तु मोह-निद्रा में इस प्रकार बेभान होकर मत सो । देख, राग, द्वेष, कषाय, मद आदि अनेक चोर तेरे अन्तर्मानस के खले द्वारों की ओर टकटकी लगाये हुए हैं। अगर तू असावधान रहा तो मौका पाते ही ये दुष्ट तेरा आत्मिक धन चुरा ले जायेंगे। और तू किस पूंजी के बल पर अपनी इस विराट यात्रा को सम्पन्न करेगा? अब सवेरा हो गया है, ऊँघना छोड़ दे।'
वास्तव में हम सब मुसाफिर हैं । मुसाफिरी करते-करते इस मानव शरीर रूपी चोले में आकर टिके हैं, परन्तु यह भी स्थायी नहीं है। एक दिन इसे भी छोड़कर जाना पड़ेगा और इस बीच अगर हमारा आत्मिक धन इन दुर्गण रूपी लुटेरों ने लूट लिया तो खाली हाथ यह महायात्रा कैसे पूरी होगी? कवि ने इसी बात को बड़े ही सीधे सरल शब्दों में समझाई है।
यह संसार एक भयानक अटवी-महावन है । अनन्त काल तक इसमें भटकते रहने के पश्चात् जीव ने . बड़े सौभाग्य से मानव शरीर रूपी नगर को प्राप्त किया है। जहाँ थोड़ा-सा विश्राम मिला है। यद्यपि इसका गन्तव्य स्थान-मुक्तिधाम अभी बहुत दूर है और जीव को वहाँ पहुँचने की अभिलाषा है किन्तु महायात्रा को थकावट से क्लान्त होकर इस सुविधाजनक पड़ाव पर आकर सो गया है और सोया भी ऐसा कि प्रमादवश उठने का नाम ही नहीं लेता है। यह भूल गया कि इस काया नगरी में काम, क्रोध, लोभ और विषयभोग आदि अनेक ठग हैं जो प्रतिपल उसे लूट लेने की ताक में घूम रहे हैं। दूसरों की क्या कहें स्वयं उसकी पाँचों इन्द्रियाँ भी उन ठगों से मिलकर ठगनी बन गई हैं। धोखा देने लग गई हैं। इनकी शक्ति बड़ी जबरदस्त है, जैसा कि कवि ने कहा है--'ठगणी हैं पाँच याँ को मुलक में शोर है।'
हम देखते ही हैं कि जो व्यक्ति विषयभोगों में आसक्त रहते हैं तथा मिथ्यात्व के अंधेरे में मोहनिद्रा के वशीभूत होकर सजग नहीं रह पाते उनका सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूपी अमूल्य धर्मरत्न कषाय आदि ठग और वासना रूपी ठगनियाँ चुरा लेती हैं। परिणाम यह होता है कि मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँचाने वाली पूंजी खो बैठता है और पुनः संसार रूपी अटवी में भ्रमण करने को बाध्य हो जाता है । इसीलिए संत हृदय कवि अत्यन्त कोमल और वात्सल्यपूर्ण शब्दों में उसे जगाते हुए कहते हैं
तिलोक कहत सदगुरु चौकीदार सीख,
धार रे बटाऊ ऊँघ मति भई भोर है। आचार्यप्रसाधन आचार्य अत्र
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