Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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सुख का साधन-धर्म
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संयम और नियम से अपने मन को आबद्ध करता है। उसके जीवन का एक-एक कण संयम की ज्योति से जगमगाता रहता है।
तप धर्म का तीसरा रूप बताया गया है। संयम रखने के लिये कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य है । स्वेच्छा पूर्वक कष्टों को सहन करना ही तप है। जीवन में जब तप को स्थान मिलता है तो अहिंसा और संयम का निर्वाह भी भली-भांति होने लगता है।
तप की महिमा महान् है। तप के द्वारा ही मनुष्य अपने अभीष्ट पद को प्राप्त करता है तथा पाप एवं अपूर्णता को दूर कर अपने चारित्र को उज्ज्वल और निर्मल बनाता है। तप जीवन की एक प्रखर
और महान शक्ति है। इसके द्वारा आत्मा में लिपटी हुई समस्त कर्मरज विनष्ट हो जाती है । तप के प्रभाव से आत्मा शुद्ध, बुद्ध होकर अपने स्वाभाविक प्रकाशमान रूप में अवस्थित हो जाती है। तभी कहा गया है
'संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह। साधना का मार्ग यद्यपि सरल नहीं है, किन्तु तप के प्रभाव से वह सरल बनता है। सच्चा तपस्वी अपने मन और आत्मा को अपने समस्त बाह्य परिवेश से पृथक् कर लेता है । यद्यपि उसके जीवन में कठिनाइयाँ आती रहती हैं पर वह साहस और निर्लेप भाव से उनका सामना करता हुआ उन्हें अपने मार्ग में सहायक बना लेता है। निर्लेप और निःस्वार्थ भाव से किया हुआ तप ही उसके कर्मों की निर्जरा में सहायक बनता है, पूजा, प्रतिष्ठा अथवा यश की कामना से किया हुआ नहीं । उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान ने स्पष्ट कहा है
'वेएज्ज निज्जरापेही ।
समाहि कामे समणे तवस्सी ॥' तपस्वी केवल निर्जरापेक्ष होकर ही तपस्या करे अथवा समाधि की कामना से तपस्या करे । जो तपस्वी भगवान के इस आदेश को मानकर सच्चा तप करते हैं वे समस्त कर्मों की निर्जरा करके अपनी आत्मा को शुद्ध-बुद्ध बनाकर मानवपर्याय सार्थक करते हैं।
तपाराधन करने वाले साधक में कुछ विशेष गुण होना भी आवश्यक हैं। यथा-उसकी वाणी पवित्र और प्रिय हो, उसका हृदय क्रोध और अहंकार से रहित हो। भगवान महावीर ने तो तपस्वी के 5 लिये क्रोध और मान अपथ्य कहा है। अपथ्य सेवन करने से जिस प्रकार दवा का प्रभाव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या के साथ अगर क्रोध और मान रहा तो तपस्वी की समस्त तपश्चर्या निरर्थक चली जाती है।
कई व्यक्ति कहते हैं कि तप करना मूखों का काम है, क्योंकि पाप तो आत्मा करती है और तप करके शरीर को सुखाया जाता है। शरीर को भूखा-प्यासा रखने तथा शीत और ग्रीष्मादि कष्ट में डालने से आत्मा को क्या लाभ है ? ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों से पूछना चाहिये कि मक्खन में से भी घी निकालने के लिये तुम उसे बर्तन में रखकर आग पर क्यों रखते हो? घी मक्खन में होता है न कि बर्तन में । तब फिर बर्तन को व्यर्थ ही तपाने का क्या कारण है ? उत्तर यही मिलेगा कि पात्र में रखकर तपाये बिना घी नहीं निकल सकता । मक्खन को सीधा ही आग में झोंक दिया जाये तो वह भस्म हो जायेगा। ठीक इसी प्रकार समझ लेना चाहिये कि जिस प्रकार मक्खन को शुद्धकर घी निकालने के लिये पात्र को तपाना आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मा को शुद्ध करने के लिये आत्मा के आश्रय रूप शरीर को भी तपाना आवश्यक ही नहीं वरन अनिवार्य है।
बंधुओ ! आशा है कि आपने अहिंसा, संयम और तप रूप मंगलमय धर्म के स्वरूप को समझ लिया होगा। इन सब लक्षणों पर विचार करने से यही मालूम होता है कि धर्म मानव मात्र के लिये ही
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