Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव
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मुक्त नहीं हो सकता। अनन्त सुख की प्राप्ति की अभिलाषा होते हुए भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता तथा अनन्त काल तक नाना प्रकार के दुखों का अनुभव करता रहता है। इसलिये आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि जन्म-मरण के मूल का सिंचन करने वाले इन विषय-कषायों से अलग रहने का प्रयत्न किया जाये, इन्हें समूल नष्ट करने में एक मात्र धर्म ही सहायक हो सकता है ।
धर्म से हमारा तात्पर्य बाह्य आडंबर या दिखावे से नहीं है। पूजा-पाठ कर लेना, गंगा स्नान कर आना तिलक-छापे लगा लेना या केवल मुख वस्त्रिका बांधकर अड़तालीस मिनिट तक एक स्थान पर बैठ जाना ही धर्म नहीं है, वरन जीवन में सद्गुणों, सद्वृत्तियों तथा हितकारी भावों का लाना ही धर्म है। दुसरे शब्दों में जीवन का मर्यादित एवं सुसंस्कृत होना ही धर्म है। सच्चा धर्म कषायविष का नाश करते हए जीवन के लिये परम रसायन सिद्ध होता है।
अतः मुक्ति के इच्छुक प्राणी को अपनी आकांक्षा पूर्ण करने के लिये इन्द्रियों पर तथा मन पर अंकुश लगाना पड़ेगा। काम, क्रोध, मोह, लोभ, आसक्ति तथा लालसा आदि पर विजय प्राप्त कर अनासक्ति और निर्वेद भाव को अपनाना होगा। क्योंकि जब तक मन पर विजय प्राप्त नहीं की जायेगी, कषायों के तूफानों को रोकना असम्भव होगा। प्राणी उसी अवस्था में मुक्त हो सकेगा जबकि उसकी आत्मा सांसारिक वासनाओं और क्रियाकांडों को ही धर्म समझने वाली अज्ञानता से मुक्त रहेगी। मोक्ष किसी स्थान पर नहीं होता है, वह स्वयं आत्मा में ही निहित होता है । हृदय की अज्ञान-ग्रन्थि का नष्ट होना ही मोक्ष कहा जाता है।
बंधुओ, अब आप समझ गये होंगे कि विषय और कषाय ही आत्मा के सहज स्वभाव और ज्ञान पर आवरण बनकर छाये हए होते हैं और इन्हें हटा देने पर आत्मां अपने सहज स्वभाव को प्राप्त करती है तथा सम्यक् ज्ञान प्राप्तकर अजर, अमर, शांतिमय लोक में अपना स्थान बनाती है। कषायों का परित्याग करने पर ही संसार को हटानेवाली प्रवृत्तियों का आविर्भाव होता है तथा कर्मों का आस्रव रुकता है। इसे ही धर्म नाम की संज्ञा दी जाती है। ऐसे धर्म का ही वीतराग महापुरुषों ने निरूपण किया है, जिसे अपनाना तथा उसमें बताये गये विधि-निषेधों का पालन करना प्रत्येक मुमुक्ष का कर्तव्य है। अगर वह ऐसा करने में समर्थ हो जाता है तो संसार की कोई भी शक्ति उसे शाश्वत सुख का अधिकारी वनने से नहीं रोक सकती।
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आनन्द-वचनामृत
0वीर के लिए तिनका भी तलवार है। कायर के लिए तलवार भी तिनका है।
सच तो यह है कि कायर का शस्त्र स्वयं उसी का घातक बन जाता है, जब कि वीर किसी भी घास-फूस व तृण से अपनी रक्षा कर लेता है। सम्यग् दृष्टि आत्मा किसी भी वस्तु से ज्ञान ग्रहण कर लेता है और बोध प्राप्त कर लेता है, मिथ्यात्वी हजारों शास्त्रों के होते हुए भी इधर-उधर भटकता रहता है । दीपक भी उसके लिए अंधकार का कारण बन जाता है।
आपायप्रवर अभिआगार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द-ग्रन्थ श्राआनन्दान्य
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