Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्य
श्री आनन्द ग्रन्थ
२०६
九
水
3702293 873/166381 382 श्री आनन्द
अन्य
आचार्यप्रवर श्री आनन्दॠषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व
:
बंधुओ ! जो व्यक्ति प्रशंसा - अप्रशंसा की, लक्ष्मी के आने या जाने की, किसी भी प्रकार के भय या लालच की तथा मृत्यु के आतंक की भी परवाह नहीं करता वही कल्याण के सत्यपथ पर विदेह होकर चल सकता है और वही व्यक्ति अपने मन पर संयम रखने में समर्थ हो सकता है।
मन वडा चंचल होता है और इसे वश में रखना बड़ा कठिन है। जैसा कि एक इलोक में कहा गया है
यः स्वभावो भवेद्यस्य स तेन खलु दुस्त्यजः । न हि शिक्षाशतेनापि कपिमुच्यति चापलम् ॥
जिसका जैसा स्वभाव बन जाता है, उसका छूटना अत्यन्त कठिन होता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सैकड़ों शिक्षायें देने पर भी बन्दर अपनी चंचलता नहीं छोड़ता ।
मन को भी बंदर की उपमा दी गई है । लाख बार समझने पर भी बन्दर एक स्थान पर बैठा नहीं रह सकता । उछल-कूद मचाता रहता है, इसी प्रकार चिन्तन, ध्यान आदि के द्वारा स्थिर करने का प्रयत्न करने पर भी मन की भागदौड़ बंद नहीं होती है।
श्रीकृष्ण से कहते है-
और दृढ़ है । मुझे
भगवद्गीता में उल्लेख है कि अर्जुन मन की चंचलता से परेशान होकर 'हे वासुदेव ! यह मन अत्यन्त चपल है और प्रमथन स्वभाववाला है । अत्यन्त बलवान तो ऐसा लगता है कि उसे वश में करना वायु को वश में करने के समान दुष्कर है। कैसे इस पर संयम किया जाये ।'
इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा
असंशयं महाबाहो ! अभ्यासेन तु कौन्तेय |
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मनो दुनिग्रहं चलम् । वंराग्येण च गृह्यते ।।
अर्थात् हे महाबाहो ! निस्सन्देह यह मन अत्यन्त चंचल है और कठिनता से वश में आने वाला
है, किन्तु अभ्यास से अर्थात् बारवार प्रयत्न करने से और वैराग्य से उसे वश में अवश्य किया जा सकता है।
कवि वृन्द के एक दोहे में भी यही बात कही गई है
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जातते सिल पर करत निशान ||
अर्थात् -- पत्थर कड़ा होता है, परन्तु उस पर भी प्रतिदिन रस्सी के आने-जाने से गहरा निशान जिस प्रकार हो जाता है, उसी प्रकार अत्यन्त जड़बुद्धिवाला व्यक्ति भी अगर अभ्यास करता रहे तो ज्ञानवान बन सकता है ।
मन के लिये भी ठीक यही बात है कि अगर पूरा प्रयत्न किया जाये और बार-बार उस प्रयत्न को दुहरा कर मनुष्य उसका अभ्यास करता रहे तो मन को स्थिर और संयमित बनाने में सफल हो सकता है।
मैंने आपको बताया है कि संसार में पाप कर्मों का बंधन मन, वचन और काया से होता है, पर यह भी ध्यान में रखने की बात है कि इन योगों से पाप जिस प्रकार लगता है, उसी प्रकार छूटता भी है । अगर ये बंधन में डालते हैं तो छुड़ाते भी ये ही है जैसे आपके किसी दुश्मन का किसी प्रकार से अनिष्ट हुआ और आपके मन में इसकी खुशी हुई। बहुत अच्छा हुआ जो इसके व्यापार में घाटा हुआ, इतना ही नहीं और भी उसे दुःख उठाना पड़ें तो अच्छा ।
यह विचार केवल आपके मन में है, वचन और शरीर से उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा, फिर भी आपके कर्मों का बंधन हो जायेगा परन्तु उसी समय मुबुद्धि आ जाये विवेक जागृत हो उठे तथा अपनी दुर्बलता के लिये गहरा पश्चात्ताप करते हुए आप विचार करने लगें - अरे, मैं कितना नीच हूँ जो किसी
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