Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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मन की महिमा अन्य प्राणी का अनिष्ट चिन्तन कर रहा है आदि आदि तो उसी मनोयोग के द्वारा, जिससे कि कुछ क्षण पहले आपके कर्म बँधे थे, उनकी निर्जरा होनी भी प्रारंभ हो जायेगी किन्तु आवश्यक है कि आपका पश्चाताप हार्दिक हो, उसमें बनावट न हो ।
यही बात वचन के लिये भी है। मान लीजिये किसी ने अन्य व्यक्ति को क्रोधावेश में आकर दुर्वचन कह दिये, किन्तु वही व्यक्ति उस व्यक्ति से जाकर कहे- मैंने कटुवचन कहकर आपके हृदय को दुलाया है, मुझे ऐसा कतई नहीं कहना चाहिये था, इसके लिये आप मुझे क्षमा प्रदान करें तो ऐसे पश्चात्ताप पूर्ण वचनों के कहने पर उसके पाप नष्ट हो जाते हैं ।
अब रहा शरीरयोग । शरीर से किया हुआ पाप भी शरीर के द्वारा छूट भी जाता है । उदाहरण स्वरूप आप चल रहे हैं, मार्ग में असावधानी से किसी को ठोकर लग गई और ठोकर लगते ही वह कराह उठा। अब अगर आप ठोकर लगाकर भी सीधे चले जाते हैं तो आपको जन्मी व्यक्ति गालियों की बक्शीश देगा किन्तु ठोकर लगते ही आप उसके समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हो गये और माफी मांग ली और सेवा कर दी तो वह पिघल जायेगा और आपको माफ कर देगा। सारांश यह कि पैर से ठोकर मारकर आपने हाथों से क्षमा मांग ली, सेवा कर दी तो शरीर से लगा हुआ पान शरीर से ही छूट भी गया ।
तो स्पष्ट हो गया कि मन, वचन और काया इन तीनों योगों का कषायों के साथ सम्बन्ध होने पर पाप कर्मों का बंधन होता है और मन बचन एवं काया से ही पाप कर्मों की निर्जरा भी होती है ।
अतः हमे प्रयत्न यह करना चाहिये कि प्रथम तो हमारे तीनों योगों का कपायों से संबन्ध ही न होने पाये और अगर असावधानी, प्रमाद या आवेश के कारण ऐसा हो जाये तो तुरन्त ही सच्चे पश्चात्ताप सहित हम उस पाप से छूट जाने का उपाय कर लें। अगर हम ऐसा कर सकें, अर्थात् कषायों से तथा मोह से अपने आपको बचा सकें तो हमारी आत्मोन्नति का मार्ग निष्कंटक बन जायेगा । मोहकर्म सभी अन्य कर्मों की अपेक्षा बलशाली होता है, वह बारहवें गुण स्थान तक भी आत्मा का पीछा नहीं छोड़ता और कभी-कभी तो वहाँ से लाकर पुनः भव परंपरा में डाल देता है । मोह के वशीभूत होकर प्राणी अपनी आत्मा के कल्याण और अकल्पण का भी ख्याल नहीं रखता ।
मनोनिग्रह का उपाय
बंधुओं ! मोहकर्म की शक्ति वास्तव में ही अत्यन्त प्रबल होती है, अतः प्रयत्न और अभ्यास से कपायों के साथ-साथ इसे जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। जब तक वे मन पर छाये रहते हैं, वह स्थिर नहीं रह पाता । अतः जो मुमुक्ष अपने मन को स्थिर और संयमित करना चाहता है, उसे सर्वप्रथम इन सब दोषों को दूर करना पड़ेगा और यह अभ्यास से ही हो सकता है, जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है-
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।
श्रीकृष्ण ने मन को वश में करने के दो उपाय बताये हैं- एक अभ्यास और दूसरा वैराग्य ।
अभ्यास के बारे में कुछ विचार किया गया, अब वैराग्य के बारे में विचार करते हैं । सहज ही जिज्ञासा होती है कि वैराग्य की आवश्यकता किसलिये पड़ती है। इसका समाधान यही है कि किसी भी दोष का नाश उसके विरोधी गुण को ग्रहण करने से हो सकता है। तदनुसार कपाय व राग-द्वेष का विरोधी वैराग्य है, अतः इन्हें नष्ट करने के लिये वैराग्य को ग्रहण करना चाहिये ।
ज्ञानी पुरुषों ने वैराग्यभाव के रूप में जीवन को सम्यक् मोड़ देने वाली एक महिमामयी कला का आविष्कार किया है । यह कला हमारी आत्मा के लिये अत्यन्त हितकर है। जब तक मानव के हृदय में रागद्वेष रूपी विकार विद्यमान रहते हैं तब तक वह वैराग्य परिणति का विकास नहीं कर पाता। परिणाम यह होता है कि वह सच्चे सुख का अनुभव नहीं कर सकता और दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता । आत्मा में विरक्त भावना के होने पर उसे कोई भी अपना शत्रु दिखाई नहीं देता और इसके कारण भय की भावना उसके समीप भी नहीं फटकेगी । इसीलिये भर्तृहरि ने कहा है
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आयाय प्रवद्ध आभिनंदन आआनन्द ग्रन्थ
श्री
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