Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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मन की महिमा
२०५
CENETTE
Wali
में फंसाती है और निवृत्ति त्याग की ओर बढ़ाती है। किन्तु मृगापुत्र के लिये दोनों को साथ ही रखा गया है । अतः हमें बारीकी से इसमें रहे हुए रहस्य को समझना है।
यह रहस्य इस तरह जाना जा सकता है कि विदेह विशेषण उन महामानवों के लिये प्रयुक्त किया जाता है जो संसार में रहकर भी अपने अन्तर में संसार को नहीं रहने देते है। संसार किसे कहते हैं ?
बंधुओ ! अब पुनः प्रश्न उठता है कि संसार क्या है ? संसार है आत्मा में रहे हुए क्रोध, मान, माया, लोभ, राग तथा द्वेष आदि का मूर्तिमान रूप। जन्म-मरण की शृखला या भव-परंपरा हमारे अन्तर में रहे हुए कषायादि के संयोग से हमारे ही मन, वचन या काय योगों के कारण बढ़ती है । अतः स्पष्ट है कि जो कुछ भी होता है, हमारे अन्तर की वृत्तियों के द्वारा ही होता है। जिसे हम संसार कहते हैं-वह हमारे अन्तर्मानस की उपज ही है । अगर हमारे हृदय में कषाय या रागद्वेष न हों, अगर हमारा हृदय इन दोषों से रहित हो तो बाह्य संसार से हमारा कोई संबन्ध ही न रह जाये । इसीलिये कहा जाता है कि संसार को अपने अन्दर मत रहने दो।
जो महामानव ऐसा करने में समर्थ बन जाते हैं अर्थात् संसार को अपने अन्दर नहीं रहने देते वे बाह्य संसार में रहकर भी उससे अलिप्त रहते हैं तथा विदेह कहलाते हैं।
____ संसार में रह कर भी संसार से अलिप्त किस प्रकार रहा जाता है, इसे संत तुकाराम जी एक उदाहरण द्वारा समझाते हैं
मिष्टान्नाचा स्वाद जिव्हेच्या अगदी।
__ मसक भरल्यावरी स्वाद नेणे ॥ अर्थात्-मिष्टान्नों की मधुरता का स्वाद केवल वह जिह्वा के अग्रभाग पर रहता है, तभी तक महसूस होता है, उसके आगे जाते ही समाप्त हो जाता है। एक कहावत भी है-'उतरिया घाटी हुआ माटी।' यानी कितने भी स्वादिष्ट और मधुर पकवान क्यों न हों, गले से उतरते ही माटी के समान स्वादरहित हो जाते हैं । तो जिह्वा नाना प्रकार के रसमय पदार्थों का आस्वादन करते हुए भी सदा कोरी-की-कोरी, स्वादरहित रहती है, उसी प्रकार विदेही व्यक्ति संसार में रहते हुए भी सांसारिक पदार्थों में ममत्व नहीं रखते, उससे अछूते बने रहते हैं। वे समस्त सांसारिक कार्यों और कर्तव्यों को संपन्न करते हुए भी संसार में अपनी आसक्ति, मोह की गृद्धता नही रखते । अर्थात् वे बाह्य संसार को बाहर ही रहने देते हैं, अपने अन्दर नहीं आने देते और इसी का नाम विदेह होकर रहना है । मन-बंध-मुक्ति का कारण
पढ़कर आश्चर्य होता है कि ऐसा कैसे हो सकता है ? धन का उपयोग करते हुए भी उससे निलिप्त और समस्त इन्द्रिय-सुखों को भोगते हुए भी उनसे किसी व्यक्ति को विरक्त कैसे माना जा सकता है ? परन्तु सारा रहस्य यही है और आपकी इस जिज्ञासा के उत्तर में ही है। वास्तविकता यह है कि पापकर्मों के बंधन का असली कारण मनोयोग है, अर्थात् मन की प्रवृत्तियों से ही कर्मों का बंधन और उनका झड़ना सम्भव है। कहा भी है
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्य निविषयं स्मृतम् ॥ अर्थात्-यह मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है। जो मन विषयों में आसक्त होता है वह बंधन में जकड़ता है और जो विषयों से विमुख हो जाता है, वह मोक्ष का कारण होता है। स्पष्ट है कि पापों का मूल मन है । अगर मन में पाप है, आसक्ति है, गृद्धता है तो मनुष्य पापी है और मन में पाप आदि नहीं है तो वह निष्पाप है।
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आचारप्रवर अभिनयाचार्यप्रवर आभार श्रीआनन्दन्थ श्राआनन्द
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