Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जीवन विकास का सोपान - अनुशासन
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गुरुजनों की आज्ञा को सुनकर कुपित न हो तथा क्षमा धारण करे । जो ऐसा करता है, वही
पण्डित है ।
कथन का सारांश यही है कि प्रत्येक मनुष्य को इतना विवेक और बुद्धि तो होना ही चाहिए कि वह गुरुजनों की आज्ञा को अपने लिये हितकारी माने और उसके अनुसार चलने का प्रयत्न करे अन्यथा गुरु उन्हें क्या शिक्षा देंगे और शास्त्रों के वाचन का भी उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
वस्तुतः विवेकहीन व्यक्ति उच्च जाति, उच्च कुल, परिपूर्ण इन्द्रियां, सत्संगति पाकर भी उनसे लाभ नहीं उठा पाते। वे अपने मिथ्याज्ञान के अभिमान में चूर रहकर समस्त क्रियायें ऐसी करते हैं, जिनके कारण उनका संसार घटने के बजाय बढ़ता जाता है तथा महान् कठिनाई से मिला हुआ मानवजन्म निष्फल चला जाता है। इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति को अगर अपने अमूल्य जीवन का लाभ उठाना है । तो शास्त्र श्रवण के साथ-साथ उसकी शिक्षाओं को भी ग्रहण करना चाहिये । मैंने अभी बताया है कि शास्त्रों को सबसे पहली शिक्षा अनुशासन में रहेना या आज्ञा का पालन है ।
अब हम यह देखें कि किन गुणों को धारण करने वाला अनुशासन में रह सकता है।
अनुशासन में वही व्यक्ति रह सकता है, जिसके हृदय में श्रद्धा और विनय हो । इन दोनों के अभाव का अर्थ होता है अहंकार का होना और अहंकारी व्यक्ति कभी अनुशासन में नहीं रह सकता तथा गुरुजनों की आज्ञा का पालन नहीं कर सकता ।
सद्धा परम दुलहा आज का भारतीय जीवन जो इतना श्रीहीन, शक्तिहीन, क्षीण और दलित हो गया है, उसका प्रधान कारण है मनुष्यों के हृदयों में श्रद्धा का अभाव होना । अश्रद्धा और संदेह से परिपूर्ण हृदय वाले व्यक्ति सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक किसी भी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर पाते हैं। क्योंकि वास्तविक शक्ति का स्रोत आत्मा है और श्रद्धा के अभाव में आत्म बल का कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता । श्रद्धा या विश्वास के अभाव में व्यक्तियों को संदेह का अंधकार उसे पथभ्रष्ट कर देता है और यह कहावत चरितार्थ हो जाती है
'दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम ।'
श्रद्धा ही जीवन की रोड़ है। रोड़ के बिना जिस प्रकार शरीरगति नहीं करता, उसी प्रकार श्रद्धा के अभाव में जीवन गति नहीं करता । श्रद्धा ही मनुष्यता का सृजन करती है और वही उसे कल्याण के पथ पर अग्रसर करती है। जिस व्यक्ति के हृदय में श्रद्धा नहीं होती, उसका मन पारे के समान चंचल बना रहता है । उसके विचारों में तथा क्रियाओं में कभी स्थिरता और दृढ़ता नहीं आ पाती । इस कारण वह एकनिष्ठ होकर किसी भी साधना में नहीं लग पाता है। परिणाम यह होता है कि वह अपने किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाता है । इसके विपरीत जो श्रद्धावान होता है वह अपने अटल विश्वास के द्वारा इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । कहा भी है
श्रद्धावल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।
भगवद्गीता
जिस व्यक्ति का अंतःकरण श्रद्धा से पूर्ण होता है, वह सम्यक्ज्ञान प्राप्त करता है और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके शीघ्र ही अक्षय शांति अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी भी बन जाता है ।
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आचार्य प्रवास अभिव भन्द अभिनंदन आआनन्दर श्री आनन्दा
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