Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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मोठी वानी बोलिये १६७
मुहुत्त दुक्खा उ हवंति कंटया,
वाया- दुरुत्ताणि
अर्थात् लोहे के कांटे तो शरीर में चुभने पर अल्पकाल तक ही व्यथा उत्पन्न करते हैं और उन्हें बाहर निकालने में भी विशेष कठिनाई नहीं होती है, किन्तु दुर्वचनरूपी कांटे जब हृदय में चुभ जाते हैं तो उनका निकलना अत्यन्त कठिन हो जाता है। वे जन्म-जन्मान्तर तक वैर की परम्परा को कायम कर देते हैं एवं महान् भय का कारण बनते हैं ।
अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । दुरुद्धराणि,
वेणुबंधोणि महन्भयाणि ॥ - दशवेकालिक सूत्र -३-७
निम्नलिखित श्लोक में कवि मिष्टवाणी का प्रयोग करने के लिये सीख देते हैंजिह्वाया खंडन नास्ति तालुको नंव भिद्यते । अक्षरस्य क्षयोनास्ति, बचने का दरिद्रता ॥
मधुर वचन बोलने से न तो जीभ ही कटती है, न तालु भिदता है और न ही कोमल शब्दों के विशाल भंडार में शब्दों की कमी होती है । फिर ऐसी स्थिति में मधुर वचन बोलने में क्यों दरिद्रता दिखाई जाये ? वस्तुत: अगर हमारे पास दान देने के लिये धन, धान्य, वस्त्र या अलंकार आदि नहीं हैं तो भी मीठी जवान तो है । इसका दान तो हम कर ही सकते हैं, फिर क्यों न इसी का दान करें ? आखिर इसमें कौन-सी पूंजी खर्च होती है ?
विचार और व्यवहार समान हो अगर मनुष्य सुख चाहता है तो उसे अन्दर और बाहर एक-सा रहना चाहिये । ऊपर से मीठा बोलता रहे किन्तु अन्दर कपटभाव रखे तो वह मायाचारी कहलाता है और उसका मधुर भाषण न उसे कोई लाभ पहुँचाता है और न सुनने वाले को ही । क्योंकि केवल जबान से मधुर बोलने वाला अन्तर् में ईर्ष्या-द्व ेष रखेगा तो वह दूसरे का तो किसी न किसी प्रकार से अहित करेगा ही, स्वयं भी कषाय के कारण पाप का भागी बनेगा । परिणामस्वरूप न वह दूसरों को सुख पहुंचा सकेगा और न स्वयं ही सुखी हो सकेगा । इसलिये आवश्यक है कि मधुर भाषा केवल जबान से ही न बोली जाये अपितु हृदय से निस्मृत हो ।
समाज में अधिकांश व्यक्ति ऐसे होते हैं कि यदि उनके सामने किसी प्रकार की सामाजिक उलझनें या गम्भीर समस्यायें आ जायें तो वे केवल यह करना चाहिये, वह करना चाहिए, इस बात में यह दोष है। और उस बात में वह कमी, यही वाद-विवाद करते हुए उलझनों को बढ़ा देते हैं, उनका कोई संतोषजनक हल नहीं निकालते । दूसरे शब्दों में अगर यह कहा जाये तो भी अतिशयोक्ति नहीं है कि ऐसे व्यक्ति न स्वयं कुछ लाभदायक काम करते हैं और न दूसरों को ही करने देते हैं । इसलिये समाज के प्रत्येक सदस्य को अपनी जिम्मेदारी, निष्पक्षता तथा निष्कपटता के द्वारा अपनी वाणी पर संयम रखते हुए व्यर्थ के वकवाद से बचना चाहिये और ऐसा कार्य करना चाहिये जिससे कुछ लाभ हो, अन्यथा व्यर्थ के वादविवादों और बहसों से कोई हल निकलना संभव नहीं होता, उलटे कर्मठ और अनुभवी व्यक्तियों के कार्यों में बाधा आती है, उनका मार्ग अवरुद्ध हो जाता है ।
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आध्यात्मिक क्षेत्र की दृष्टि से देखा जाय तो भी भाषा के असंयमी व्यक्ति अपनी आत्मोन्नति में स्वयं ही बाधक बनते हैं । शास्त्रकारों ने भाषा के सम्यक् प्रयोग पर बहुत बल दिया है । पाँच महाव्रतों में सत्यव्रत का विधान भी इसीलिये किया गया है कि मनुष्य मायाचार का त्याग करके अपने मन में भाषा की सचाई और मृदुता का सदैव ख्याल रखे और कभी भी कटु, कठोर और असत्य भाषा का प्रयोग न करे ।
आचार्य प्रवर
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