Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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सहयोग सर्वत्र आवश्यक
१७१
___ अहंकार व्यर्थ है कोई भी व्यक्ति अगर इस बात का गव करे कि मुझे किसी भी दूसरे की सहायता अपेक्षित नहीं है, मैं स्वयं ही अपनी जीवनयात्रा को सम्यकरूप से चला सकता हूँ तो उसका यह अहंकार व्यर्थ है। वह अकेला अपना एक भी कार्य सम्यक रूप से नहीं कर सकता। किसो कवि ने अन्योक्ति अलंकार के द्वारा मनुष्य के अहंकार की व्यर्थता बतलाते हुए कागज, स्याही, कलम, चाकू और हाथ का उदाहरण देकर कहा है
कागज घंमड से आबोला आलम से मुहब्बत करता हूँ।
सुलतान भी मेरी चाह करे, दिल में अभिमान भी रखता है। कागज के इस अभिमान को देख स्याही उबल पड़ी
कहे रोशनाई जोश में आकर नाहक तू पत्र उछलता है।
जब तक नहीं मेरे अंक पड़ें तब तक कुछ काम न चलता है। कागज और स्याही के इस वाद-विवाद से लेखनी की तंद्रा टूट गई और उसने अपना महत्व बताते हुए कहा
दोनों की बातें सुनकर के लेखनी एकदम बोल उठी।
मेरा मान सरकार करे दोनों की पोल मैं खोल उठी ॥ लेखनी की इस अपनी बड़ाई को देखकर चाकू कैसे पीछे रह सकता था और बोला
लेखनी से चाकू यों बोला जब तक न चलेगी धार मेरी ।
तब तक न तुम्हारी कीमत है, रही बात श्रेष्ठ हरबार मेरी॥ इस प्रकार कागज, स्याही आदि चारों को आपस में झगड़ते देख हाथ परेशान हो उठा और अपनी समझदारी से इस विवाद को शांत करने के लिये उसने कहा
सबको सुनकर पंजा बोला मेरे बिन काम न चलने का।
बस फक्त एक ही व्यक्ति से हगिज कुछ काम न बनने का ॥ हाथ की इस बात को सुनकर आप समझ गये होंगे कि संसार में केवल एक ही वस्तु से कार्य सिद्ध नहीं होता। अनेक वस्तुओं के मेल और सहयोग से ही प्रत्येक कार्य बनता है। महत्त्व सभी वस्तुओं का होता है, किन्तु कोई भी कार्य सम्पन्न तभी होता है जबकि सब चीजों का समान सहयोग और परिश्रम हो।
समाज में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका चारों तीर्थ विद्यमान हैं। चारों ही महान् शक्ति से विभूषित हैं। किसी का भी कार्य एक दूसरे के बिना नहीं चलता। अगर श्रावक, श्राविका न हों तो साधुसाध्वी आहार, वस्त्र आदि किससे ग्रहण करके अपनी साधना को निरापद रीति से आगे बढ़ा सकेंगे ? और साधु-साध्वी न हों तो श्रावक-श्राविकायें किससे कल्याणकारी मार्ग पर अग्रसर होने का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकेंगे?
ये चारों तीर्थ समाज के भिन्न-भिन्न अंग हैं जो परस्पर सहयोग के द्वारा समाज को उन्नत बनाते हैं । अगर इनमें से एक भी अपने को अलग और सर्वशक्तिमान समझने लगे तो वह स्वयं अपूर्ण रह जायेगा और समाज की शक्ति का भी ह्रास करेगा । दूसरे शद्रों में दोनों की हानि होगी और जिस जैनत्व को दोनों चमकाना चाहते हैं, वह निस्तेज होकर रह जायेगा। प्राचीन काल में संसार में जैनत्व के प्रचारप्रसार का मुख्य कारण यह था कि उस समय ये चारों तीर्थ अपने सामूहिक बल और सहयोग के द्वारा उसका प्रचार-प्रसार करते रहते थे, किन्तु आज जैनत्व का प्रवाह भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों और वर्गों में उलझकर अवरुद्ध-सा हो रहा है।।
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