Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यश्व
आयाम प्रवर अभिनंद श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द
१७२
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अभिनंदन ग्रन्थ
यह जीवन यात्रा है
.
जीवन एक यात्रा है, जिसे प्रत्येक प्राणी संपन्न करता है । किन्तु सभी के चलने में बड़ा भारी अंतर होता है । कुछ यात्री ऐसे होते हैं जो अपना मार्ग लड़ते-झगड़ते तथा कटुता और वैमनस्य बढ़ाते हुए तय करते हैं तथा कुछ ऐसे होते हैं जो सद्भावना और सहानुभूति के द्वारा अपने से अशक्त प्राणियों को सहयोग देते हुए, गिरतों को उठाते हुए संतोष और शांतिपूर्वक अपनी मंजिल की ओर बढ़ते हैं। कितना अंतर है दोनों प्रकार के यात्रियों में ? दोनों ही चलते हैं, किन्तु एक उसी पथ पर चलकर नरक और निगोद में जा पहुँचता है और दूसरा उसी मार्ग पर चलता हुआ स्वर्ग, मोक्ष तक भी पहुँच जाता है । इसका कारण केवल यही है कि एक अन्य यात्रियों से असहयोग करता हुआ वैर, विरोध, कटुता और वैमनस्य के कारण नाना प्रकार के कर्मों का बंधन कर लेता है, जो उसे नीचाई की ओर ले जाते हैं तथा दूसरा व्यक्ति सभी को सहयोग देता हुआ और उनसे सहयोग लेता हुआ अपनी आत्मा को कषाय आदि से परे रखता है तथा अपनी निर्मल भावनाओं के कारण पुण्यसंचय कर लेता है जो उसकी आत्मा को ऊंचा उठाते हैं।
आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इसलिये बंधुओं! हमें मानव के रूप में सर्वप्रथम मानवता को अपनाना है, जिसका चरण है मित्रता और सहयोग की भावना रखना तथा सबसे हिल-मिल कर चलना जो व्यक्ति मानवता के इस प्रथम पाठ को सम्यक् रूप से पढ़ और समझ लेता है, वह अपने हृदय को सद्गुणों का भंडार बनाने में समर्थ हो जाता है। गुणार्जन सरल नहीं
गुणों को ग्रहण करना आसान कार्य नहीं है, उसके लिये बड़े त्याग और परिश्रम की आवश्यकता होती है। किसान जिस प्रकार अन्न की फसल को प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम भूमि की शुद्धि करता है और उसमें बीज बो देने पर भी रात-दिन सजग होकर उसकी सुरक्षा बड़ी सावधानी और परिश्रम से करने के बाद ही अन्न को प्राप्त करता है । उसी प्रकार मनुष्य को गुण ग्रहण पड़ती है। सर्वप्रथम हृदय की भूमि को कपयादि के कचरे से रहित
करने के लिये कठिन साधना करनी
बनकर सरलता रूपी खाद से गुण रूपी
फसल के उपजाने योग्य बनाना पड़ता है और सद्गुणों के अंकुरों
रक्षा करनी पड़ती है। अगर ऐसा न किया जाये तो एक बार सद्गुणों को
की अत्यन्त सावधानी से
अपना लेने पर भी कुसंगति से पुनः उनके नष्ट हो जाने की संभावना रहती है। कहा भी है
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रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच का संग ।
करिया वासन कर गहे, करिखा लागत अंग ॥
इसलिये मनुष्य को गुण ग्रहण करने के पश्चात भी उन्हें सुरक्षित रखने के लिए पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिये। अतः आवश्यक है कि दुर्जनों की अथवा निर्गुणियों की संगति से बचता रहे। जो व्यक्ति अपने हृदय में सद्गुणों का संचय करने की अभिलाषा रखता है, उसे जहाँ भी प्राप्त हों वहाँ से लेने का प्रयत्न करना चाहिये। गुणप्राप्ति के लिये उसे धनी निर्धन और शत्रु का भेदभाव भी छोड़ देना चाहिये । गुणग्राही व्यक्ति की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि वह किसी को भी हीन नहीं समझता । वह 'आत्मत्व सर्व भूतेषु' के सिद्धान्त को मानता हुआ अपनी आत्मा के समान ही सभी की आत्माओं को मानता है । उस व्यक्ति के द्वारा किसी भी व्यक्ति का कभी अहित नहीं होता। उसकी प्रकृति सभी से मिलकर चलने की तथा संगठित होकर जाति, समाज और देश का गौरव बढ़ाने की होती है।
जान डिकिन्सन नामक एक विद्वान ने कहा है 'संगठन में हमारा अस्तित्व कायम रहता है और विभाजन में हमारा पतन होता है। वस्तुतः संगठन के द्वारा बड़े-बड़े कार्य भी सरलता पूर्वक संपन्न कर लिये जाते हैं, जबकि फूट और भेदभाव की भावना रखने पर छोटे-छोटे उद्देश्यों की भी पूर्ति नहीं हो पाती ।
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