Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आण्यप्रत अगदी आआनन्द अत्यन
आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्संगति से तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा तथा भगवान के वचनों का पालन हो सकेगा । इस सबसे बढ़कर तो यह होगा कि तुम्हारे हृदय में घर किये हुए अज्ञान का लोप होगा एवं कुबुद्धि जड़मूल से नष्ट हो जायेगी ।
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तुम्हारे हृदय में शील, संतोष, क्षमा, धैर्य आदि अनेक सद्गुणों का उदय होगा जो कि तुम्हारी आत्मा को पापों से दूर रखेगा तथा भव भव के दुखों से छुटकारा दिलायेगा । इसलिये हे प्राणी तुम उत्तम पुरुषों की संगति करो ।
वस्तुतः : संत जनों की संगति से हृदय में रहे हुए अवगुणों का नाश होता है तथा सद्गुणों का आविभवि हो जाता है ।
अब सत्संगति का पांचवां लाभ क्या है ? हमें यह देखना है । यह लाभ है मन में असीम शांति की स्थापना होना । जो व्यक्ति सज्जनों की संगति करता है, उससे मन में अपार शांति सदा बनी रहती है, क्योंकि सज्जनों की संगति करने वाले व्यक्ति की कोई निन्दा नहीं करता और उसे किसी प्रकार की लज्जा या शर्म का अनुभव नहीं होता । संत जनों की संगति करने वाला व्यक्ति अगर बुरा हो तब भी लोग उसे भला कहते हैं तथा बुरे व्यक्ति की संगति करने वाले अच्छे व्यक्ति को भी दुनिया बुरा ही मानने लगती हैं। कहा भी है-
सत संगत के वास सों अवगुन हू छिपि जात । अहीरधाम मदिरा पिबं दूध जानिये तात ॥ असत संग के वास सों गुन अवगुन जात । दूध पिबं कलवार घर मदिरा सर्बाह बुझात ॥
कहने का अभिप्राय यही है कि दुनिया किसी भी व्यक्ति के साथियों को देखकर ही उस व्यक्ति के चरित्र का अन्दाज लगाती है । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को सदा भले और सज्जन व्यक्तियों के सहवास में ही रहना चाहिए ।
इस प्रकार सत्संगति से व्यक्ति को अनेक लाभ होते हैं । सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि सज्जनों की संगति करने से वह दुर्जनों के संग से बच जाता है। भले ही व्यक्ति संतजनों का उपदेश न सुने किन्तु समीप रहकर उनकी दिनचर्या का अवलोकन करते हुए भी धीरे-धीरे उनके सद्गुणों का अनुकरण करने लगता है और यही हाल दुर्जनों की संगति से होता है । न चाहने पर भी शनैः-शनैः वह दुर्गुणों की ओर उन्मुख हुए बिना नहीं रह पाता । उनके सहवास से लाभ रंचमात्र भी नहीं होता, केवल हानियां ही पल्ले पड़ती हैं । दुर्जन व्यक्ति संख्या में अनेक होकर भी किसी व्यक्ति का भला नहीं कर सकते। क्योंकि वे स्वयं ही आत्मा को उन्नति की ओर अग्रसर करने का मार्ग नहीं खोज पाते । तभी कहा जाता है
'शतमप्यन्धानां न पश्यति ।'
सौ अंधे मिलकर भी देख नहीं पाते । किन्तु इसके विपरीत संत- पुरुष भले ही अकेला हो, वह स्वयं अपने लिए उत्तम मार्ग खोज लेता है तथा अन्य असंख्य व्यक्तियों को भी मार्ग सुझाता है । चन्दन के समान वह अत्यल्प मात्रा में होकर भी मनुष्य के मन को आह्लाद से भर देता है, जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी इस कार्य को संपन्न नहीं कर सकती। किसी ने यही कहा है-
'चन्दन की चुटकी भली, गाड़ी भला न काठ ।'
इसलिए बन्धुओ, भले ही संगति थोड़े समय के लिए की जाय किन्तु संगति सदपुरुषों की ही करनी चाहिए, उससे हमें जो लाभ होगा वह हमारे जीवन की उन्नति के पथ पर कई कदम आगे बढ़ा सकेगा ।
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