Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवभिन्न श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दग्रन्थ
भाचप्रवासी
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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'हे प्रभो ! मुझे अज्ञान के अंधेरे से निकाल कर ज्ञान के पवित्र और उज्ज्वल प्रकाश में ले चलो। और अन्त में वह कहता है
'मृत्योर्मा अमृतं गमय ।' __अर्थात्-'मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।' अमरता कैसे प्राप्त हो
मृत्यु से अमरता की ओर जाने का अर्थ है जन्म-मरण से मुक्त हो जाना। यह अभिलाषा रहती तो प्रत्येक प्राणी में है, पर केवल इच्छामात्र से तो सिद्धि मिल नहीं सकती। व्यक्ति अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाना चाहता है, किन्तु चले एक कदम भी नहीं, तो क्या वह अपने इच्छित स्थान पर पहुँच जायेगा? हम भी जन्म-मरण की शृखला को तोड़ना चाहते हैं पर मोह, ममता और आसक्ति को नहीं छोड़ सकते, त्याग और तपस्या के मार्ग पर नहीं बढ़ सकते तो फिर आत्मा का कल्याण कैसे होगा? हम भूल जाते हैं कि यह संसार असार है, सांसारिक सुख झठे हैं, इसमें दिखाई देने वाले सभी दृश्यमान पदार्थ नश्वर हैं, और तो और, यह देह भी तो अपनी नहीं है, फिर भी कहते हैं यह मेरा है, यह मेरा है । क्या इसी भावना को लेकर हम अपने कर्मों को नष्ट कर सकते है ? तो जब यह सब अर्थात् संसार के समस्त पदार्थ, मारे सम्बन्धी और अपार धन-वैभव इस शरीर के नष्ट होते ही यहीं छूट जाने वाला है, हम क्यों न इन्हें पहले ही छोड़कर अपनी आत्मा को कर्मरहित बनाने का प्रयत्न करें ताकि इस देह रूपी पिंजरे से मुक्त होते ही अपने स्वभावानुसार ऊपर की ओर ही गमन करें, अपनी स्वाभाविक गति के विपरीत कर्मभार के बोझ से लदकर नीचे की ओर न जायें ।
संसार छोड़ने का आशय है कि हम संसार के प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी के प्रति रही हुई आसक्ति तथा मोह का त्याग करें, संसार में रहते हुए संसार से अलिप्त रहें । संसार का सभी कुछ, यहाँ तक कि यह शरीर भी चाहे कितनी भी इसकी सुरक्षा क्यों न की जाये, एक दिन नष्ट होने वाला है, अतः इसका खयाल छोड़कर हमें अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिए।
एक बार श्रीमद् राजचन्द्र ने एक व्यक्ति से प्रश्न किया-'अगर तुम एक हाथ में घी का भरा लोटा और दूसरे हाथ में छाछ का भरा लोटा लेकर चलो तथा रास्ते में किसी का धक्का लगे तो तुम किम लोटे को संभालोगे?
'घी का लोटा ही संभालेंगे।' उत्तर मिला।
राजचन्द्र मुस्कराते हुए बोले---'इतना ज्ञान होते हुए भी मनुष्य छाछ के समान देह को सम्भालता है और घी के समान जो आत्मा है, उसे गिरने देता है । कैसी नादानी है।'
तो बन्धुओ ! हमें ऐसी नादानी नहीं करनी है । यही प्रयत्न करना है कि हमारी आत्मा उत्तरोत्तर उन्नत होती हई मृत्यु से अमरत्व की ओर बढ़े और हमारी प्रार्थना---'मृत्योर्माअमृतं गमय'-सार्थक बनसके)
परन्तु इस प्रार्थना को सार्थक करने के लिए आवश्यकता है कि वह शब्दों के साथ-साथ हृदय से भी निस्सृत हो । प्रार्थना के स्वरों के साथ अगर हृदय नहीं बोला तो वह प्रार्थना तोतारटंत से अधिक महत्त्व नहीं रखेगी। प्रार्थना करने वाले व्यक्ति के हृदय में सच्ची लगन और दृढ़ता भी होनी चाहिए। वही पुरुषपुगव मुक्ति धाम का अधिकारी बन सकता है।
इसलिये बन्धुओ ! अपनी इच्छाशक्ति को जगाओ, अपने आपमें विश्वास रखो तथा सच्चे हृदय से ईशप्रार्थना करते हुए कल्याण के मार्ग पर बढ़ने का प्रयत्न करो। ऐसा करने पर निश्चय ही तुम्हें सत्य की प्राप्ति होगी, तुम्हारी आत्मा मिथ्यात्व और अज्ञान के घोर अंधेरे से निकलकर ज्ञान के दिव्य प्रकाश की ओर बढ़ेगी तथा मृत्यु को जीत कर अमरत्व की प्राप्ति कर सकेगी।
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