Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्य प्रवर
आयार्यप्रवरुप अभिनंद श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द
२००
आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अभिनन्दन
प्रेम से जुझारसिंह वश किया जीवराज, मानसिंह मायोदास मिलिया चारों भाई हैं । कर्मचन्द काठा भया रूपचन्द जी से प्यार, धनराज जी की बात चाहत सदा ही है । ज्ञानचन्द जी की बात सुने न चेतनराम, आवे नहीं दयाचन्द सदा सुखदाई है । कहत त्रिलोक रिख मनाइ लीजे नेमचन्द, नहीं तो कालुराम आया विपत सवाई है ।
पद्य मनोरंजक होने के साथ ही शिक्षाप्रद भी है । यद्यपि कवि ने इस में व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग किया है किन्तु इनके पीछे रहस्यमय तरीके से कषायों के कुप्रभावों का दिग्दर्शन कराया है । पद्य में लोभ को प्रेमसिंह की, क्रोध को जुझारसिंह की, अभिमान को मानसिंह की तथा माया या कपट को मायीदास जी व्यंग-सूचक संज्ञा से विभूषित किया है ।
क्रोध
जिसे जुझारसिंह नाम से संबोधित किया गया है उसका आक्रमश होने पर व्यक्ति वे भान हो जाता है तथा हिताहित का ज्ञान भूलकर अकरणीय करने पर उतारू हो जाता है। आवेश के कारण उसके विवेक रूपी नेत्रबन्द हो जाते हैं किन्तु जिह्वा उचित अनुचित का भान छोड़कर इच्छानुसार कह जाती है । क्रोध एक तूफान के समान आता है और सर्वप्रथम विवेक की ज्योति को बुझा देता है । विवेक के अभाव में वह क्रोधी को तो जलाता ही है साथ ही अपने कटु वचनों की चिनगारियाँ जिस किसी पर भी पड़ती है वह भी जलने लगता है । तात्पर्य यह है कि क्रोध क्रोधी को तथा क्रोध के पात्र, दोनों को ही उत्तप्त करता है । इसीलिये महापुरुष और मुमुक्ष, प्राणी इससे कोसों दूर रहने का प्रयत्न करते हैं ।
मान
st पद्य में क्रोध रूप जुझारसिंह के दूसरे
मित्र का नाम अभिमान को संबोधित किया है । अभिमानी व्यक्ति अहंकार के तथा औरों को तुच्छ । किन्तु इसका परिणाम उलटा हो जाता है। किन्तु संसार की नजरों में वह महान न रहकर क्षुद्र साबित होता है है। कहा भी गया है
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मानसिंह दिया है । मानसिंह के नाम से कारण अपने आपको महान् समझता है भले ही वह स्वयं को महान् समझे तथा लोगों की नजरों से गिर जाता
'मानेन सर्वजन निन्दितवेशरूपः ।'
अहंकार से सभी मनुष्यों द्वारा निन्दा का पात्र ही बनना पड़ता है ।
अभिमानी व्यक्ति का स्वभाव होता है कि वह औरों के कार्यों को नगण्य मानता हुआ अपने कार्यों को सर्वोत्तम साबित करे । उसके कान सर्वदा अपनी प्रशंसा सुनने के लिये आतुर रहते हैं किन्तु उसकी इस आकांक्षा के पूर्ण होने में उसका अहंकार बाधक बन जाता है तथा उसकी प्रगति रोक देता है । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि अभिमानी व्यक्ति गगन को छूने का प्रयत्न करता है किन्तु धराशायी होकर संसार के समक्ष उपहास का पात्र बनकर रह जाता ।
माया
जुझारसिंह और मानसिंह का तीसरा भाई है मायीदास । अर्थात् माया और कपट । माया हृदय की सरलता को नष्ट कर देती है तथा कुटिलता को आमंत्रित करती है और हृदय में जहाँ कुटिलता आई कि वहाँ से अन्य सद्गुणों का लोप होना प्रारंभ हुआ ही समझिये । हृदय की वक्रता अथवा कपट साधक की समस्त साधना और तपस्या को मिट्टी में मिला देता है ।
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