Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कभी-कभी उनके सगे-स्नेही भाई या पुत्र भी उन्हें धोखा दे देते हैं। तात्पर्य यही है कि राजाओं को भी धन रहते हुए भी सुख हासिल नहीं होता। इसी प्रकार सेठ-साहूकारों को देखें तो वे भी सुखी नहीं दिखते हैं। उन्हें भी राजा-चोर आदि का भय बना रहता है। राजा की आँख जरा टेढ़ी हुई नहीं कि सब धनमाल छीनकर देशनिकाला दे दिया जाता है। चोरों की नजर जम गई तो धन तो गया ही, प्राणों से भी हाथ धोना पड़ जाता है।
तो बन्धुओ, जैसा कि श्लोक में कहा गया है—नित्य धन का लाभ होना संसार में पहला सुख है, यह सही साबित नहीं होता । अपितु धन सदैव दुखदायी होता है । क्योंकि
अर्थानामर्जने दुःखं अजितानाञ्च रक्षणे ।
आये दुःखं व्यये दुःखं किमर्थं दुःख साधनम् । धन का उपार्जन करने में भी दुःख है, उपार्जन कर लेने के बाद उसकी रक्षा करने में दुख होता है। धन के आने में दुःख और चले जाने में भी दुःख । तब फिर अरे मानव ! तू जानबूझ कर क्यों दुःख-प्राप्ति का साधन करता है ?
दुसरा मुख बताया है आरोग्यता । यानी निरोग रहना भी संसार के छह सुखों में से एक सुख है।
इसके विषय में आप और हम सभी जानते हैं कि सुन्दर स्वास्थ्य यद्यपि सुखदायी है और स्वस्थ रहने पर इन्सान अपने आपको पूर्ण सुखी मानता है। कहा भी जाता है-पहला सुख निरोगी काया। किन्तु यह शरीर किसी भी हालत में सदा स्वस्थ नहीं रह सकता है। चाहे व्यक्ति सदा ही पौष्टिक पदार्थ खाता रहे, फिर भी न जाने किस अदृष्ट मार्ग से आकर रोग उसे घेर ही लेते हैं और वृद्धावस्था के आ जाने पर तो वे हटाये नहीं हटते ।
अतः आरोग्यता को भी स्थायी सुख मानना भी निरा अज्ञान है। अब हम श्लोक की दूसरी पंक्ति पर विचार करते हैं। जो कहती है--
प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।' यानी प्रिय और प्रियवादिनी पत्नी का मिलना भी सुख का कारण है। किन्तु हम तो संसार में यह बात भी सही होते नहीं देखते हैं । देखते यही हैं कि सभी सम्बन्धियों के समान ही जब तक मनुष्य धन कमाता है तथा वस्त्राभूषण आदि से पत्नी को सन्तुष्ट रखता है तभी तक वह भी अपने पति से मधुर भाषण करती है और जब पति भाग्य के विपरीत होने से इन भौतिक साधनों को नहीं जुटा पाता तो वह भी आँख फेर लेती है।
अगर यह मान भी लिया जाये कि पत्नी की पति में प्रीति होती है तो वह भी कितने समय तक मुख पहुंचा सकती है ? केवल तभी तक तो जब तक कि मनुष्य इस शरीर को धारण किये हुए है। आँखें मुदते ही तो स्त्री का वियोग हो जाता है और आत्मा अन्य किसी योनि में जन्म लेने पहँच जाती है।
अतः सुख स्वजनों को अथवा मन के अनुकूल पत्नी को प्राप्त कर लेने में भी नहीं है। अन्यथा कोई यह क्यों कहता
घर को नार बहत हित जासों, रहत सदा संग लागी । जब ही हंस तजो यह काया,
प्रेत प्रेत कह भागी॥ कहने का अभिप्राय यही है कि नारी के मुख को सुख मानना भी निरर्थक है। यह सुख भी कभी स्थायी नहीं होता है।
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