Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जाकी रही भावना जैसी
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भाव रहा तो थोड़ा-सा सत्कर्म भी बहुत बड़ा फल देता है और भाव नहीं रहा तो जन्म भर किये गये सत्कर्म भी व्यर्थ तथा अल्पतम फल देने वाले होते हैं। कहा जाता है
नमक बिना ज्यों अन्न अलूना, आंख बिना ज्यों जीवन सूना,
भाव बिना त्यों धर्म अपूना । आँख के बिना ज्यों जीवन सूना है, नमक बिना मसालेदार भोजन अलूना है, उसी प्रकार भाव के बिना समस्त धर्म क्रियाएँ अपूर्ण हैं, अधूरी हैं।
जैनधर्म भावप्रधान धर्म है। यहाँ प्रत्येक वस्तु का विवेचन द्रव्य और भाव दो दृष्टियों से किया जाता है । द्रव्य का अर्थ है---भावनाशून्य प्रवृत्ति। जैसे प्राणरहित शरीर होता है, उसे द्रव्यजीव कहते है, वैसे ही भावरहित धर्म को, द्रव्यधर्म कहते हैं। साधुपन, श्रावकपन, सामायिक, प्रतिक्रमण-सभी को द्रव्य और भाव की अलग-अलग कसौटियों पर कसा गया है । जिस क्रिया के साथ उपयोग नहीं होता, भाव नहीं होता, वह द्रव्यक्रिया है। आप प्रतिक्रमण कर रहे हैं, अथवा सामायिक कर रहे हैं, वेषभूषा, आसन आदि सब जमा लिए, मह से पाठ का उच्चारण भी करने लगे, लेकिन मन, भावना कहीं अन्यत्र भटक रही है तो? आपका शरीर स्थानक में बैठा है और मन दुकान में ? तो क्या आपकी सामायिक भाव-सामायिक होगी? नहीं ! आप मह से प्रतिक्रमण का पाठ बोल रहे हैं और मन कहीं किसी से राग-द्वेष कर रहा है, कहीं लेन-देन, खाने-पीने की चिन्ता में लगा है तो वह प्रतिक्रमण भी सिर्फ द्रव्य-प्रतिक्रमण होगा। अनूयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के दो भेद बताये गये हैं-द्रव्य-आवश्यक और भाव-आवश्यक । भावना रहित सिर्फ शब्दों का उच्चारण करना द्रव्य-आवश्यक है और शब्दों के साथ भाव, मन उसी में अनुरक्त हो जाये तब वह भाव-आवश्यक होता है। बताया गया है—तब्भावणाभाविए अन्नत्य कत्थइ मणं अकरेमाणे.. उच्चारण किये जाने वाले शब्दों की जो भावना है, उस भावना से भावित होकर जो मन को उसी में स्थिर करता है, उसी को भाव-आवश्यक होता है।
फलं भावानुसारतः कभी-कभी आप लोग देखते हैं और सुनते भी हैं कि क्रिया कुछ और चल रही है और फल कुछ दुसरा ही आ रहा है। आप लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि यह क्या? वास्तव में देखा जाय तो फल क्रिया के पीछे नहीं, भाव के पीछे चलता है। आगम में बताया है धर्म में स्थिर, उपयोगयुक्त संयमी साधु रास्ते चलता है, उसके पैर से किसी जीव का प्राणवध हो जाता है, दीखने में हिंसा प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में वह साधु हिंसक नहीं, किन्तु अहिंसक ही है । उसे उपयोग पूर्वक गति करने में पापबंध नहीं कितु कर्मनिजरा होती है।
जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स ।
सा होइ निज्जरफला, अज्झत्य विसोहि जुत्तस्स । जो यतनावान साधक अन्तर विशुद्धि (निर्मल-भावना) से युक्त है, और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा कभी-कभार हिंसा (जीव-विराधना) होने पर भी वह कर्म निर्जरा का कारण होती है।
आप आश्चर्य करेंगे कि ऐसा क्यों? यह साधु के साथ पक्षपात नहीं है ? वास्तव में विचार करेंगे तो यहाँ भावना का सर्वोपरि महत्व आपके ध्यान में आयेगा, भाव शुद्ध होने पर हिंसा भी अहिंसा
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ओघ नियुक्ति, गाथा ७५८-५९
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