Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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मप्रवभिआचार्य श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्दा अन्ध५2
१८० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गया
जया जोगे निरु भित्ता सेलिसि पडिवज्जइ । तया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ ॥ जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ।
तया लोग मत्थयत्यो सिद्धो हवइ सासओ॥ अर्थात् जीव जब देवता और मनुष्य सम्बन्धी समस्त कामभोगों से विरक्त हो जाता है तब बाह्य और आन्तरिक सभी संयोग त्याग देता है। माता-पिता, महल-मकान आदि बाहर के पदार्थों का संयोग, बाह्य संयोग और राग द्वेषादि मोह और कषायों का संयोग आभ्यन्तर संयोग कहलाता है।
जब मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर संयोगों का त्याग कर देता है तो पूर्ण संयमी बन जाता है और कर्मरज को दूर करता हुआ केवलज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त करता है। पश्चात् मन, बचन और काया के योगों को निरोध करके आत्मा शैलेशी अवस्था यानी सुमेरु के समान अकम्प दशा को पा लेता है और तब सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके सिद्धगति प्राप्त कर लेता है। और जब सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है तो लोक के अग्रभाग पर विराजमान हो जाता है और शाश्वत सिद्ध कहलाता है।
इस प्रकार सच्चा सुख केवल मुक्त अवस्था प्राप्त कर लेने में है। आत्मा जैसे-जैसे पर-पदार्थों पर से अपनी ममता हटाता जायेगा तथा आत्मस्वरूप में लीन होता जायेगा, वैसे-ही-वैसे वह सच्चे सुख की प्राप्ति करता जायेगा। अभिप्राय यही है कि सुख संसार के भोगोपभोगों मैं, तथा के पदार्थों का संचय करने में नहीं अपितु उनका त्याग करने में है।
त्याग की भावना ऐसी जबरदस्त और प्रभावशाली होती है कि जिसके कारण व्यक्ति राजपाट को भी ठोकर मार देता है और अकिंचन बनकर पूर्ण सन्तोषपूर्वक आत्म-साधना में जुट जाता है । इतिहास उठाकर देखने पर हमें अनेकानेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा और चक्रवर्ती भी अपना सर्वस्व त्याग कर साधु बन गये तथा सन्त जीवन अपनाकर आत्मकल्याण में जुट गये।
विवेकी और ज्ञानी पुरुष इस यथार्थ को समझ लेते हैं और भगवान के कहे हुए इन शब्दों पर पूर्णतया विश्वास करते हैं
'कामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।' कामनाओं को जीत लो, दुख दूर हो जायेगा।
इस एक वाक्य में ही अनन्त काल से उलझी हुई समस्या का अति सुन्दर समाधान दिया हुआ है कि मानव जब तक कामनाओं का दास बना हुआ है तब तक दुःखों से नहीं बच सकता और सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता।
बन्धुओ, आप सच्चे सुख का रहस्य समझ गये होंगे किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील भी बनेंगे तभी अपना जीवन सफल बना सकेंगे।
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