Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
संसार कटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।
सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जने ॥ इस विराट् विश्वरूपी कटुवृक्ष में अमृत के समान दो ही फल हैं---एक है सरस और प्रिय वचन तथा दूसरा सज्जन पुरुषों की संगति । वाणी की शक्ति
आज हम जिधर भी दृष्टिपात करते हैं, वैर, विरोध और संघर्ष दिखाई देता है। राष्ट्र, समाज, परिवार, बाजार और स्कूल या कालेजों में, सभी जगह अशांति और कलह का वातावरण बना रहता है। इसके मूल करणों को खोजा जाय तो लगता है कि अधिकांशतया संघर्षों का कारण वाणी का दुरुपयोग करना ही है। मनुष्य अपनी भाषा की मधुरता से जहाँ आसपास के सम्पूर्ण वातावरण को अपने अनुकूल वना लेता है तथा सर्वत्र संमान का पात्र बनता है, वहाँ भाषा के दुरुपयोग से अपमान और निन्दा का भाजन बन जाता है। इसीलिये कहा जाता है--
जिह्वा में अमत बस, विष भी तिसके पास ।
हक बोले तो लाख ले, एके लाख विनास ॥ अमृत और विष दोनों ही जिह्वा में विद्यमान रहते हैं। जो व्यक्ति अमृतमयी अर्थात् मधुर और प्रिय वाणी का उच्चारण करता है, वह अनेक प्रकार का लाभ प्राप्त कर लेता है और जो अपनी जिह्वा से विषरूप कटुवचनों का उच्चारण करता है, वह अपने पास रहा हुआ वैभव भी खो देता है । स्पष्ट है कि मनुष्य की भाषा में महान् शक्ति निहित होती है। अपनी इस छोटी-सी जीभ से ही वह चाहे तो महाभारत के समान युद्ध ठनवा दे और चाहे तो अपने चारों ओर शत्रओं को भी मित्र बना ले और घोर कलह को पलक झपकते ही शांत कर दे। इसके बारे में एक उर्दू कवि ने कहा है
गैर अपने होंगे, शोरी होगा अपनी जवां ।
दोस्त हो जाते हैं दुश्मन तलख हो जिसकी जवां ।। अपनी जबान मधुर हो तो गैर भी अपने बन जाते हैं और तीखी जबान होने से मित्र भी शत्रु के रूप में बदल जाते हैं।
वाणी का प्रयोग करने के संबन्ध में सभी शास्त्र भी एक ही बात कहते हैं कि मनुष्य सदा मधुर वचन बोले । प्रियवचनों का प्रभाव बड़ा चमत्कारिक होता है और इसके विपरीत अगर कटुभाषा का प्रयोग किया जाये तो कहने वाले और सुनने वाले दोनों ही प्राणियों का अहित होता है । दिल दुखाने वाले शब्दों का उच्चारण करके बोलने वाले के कर्मों का बंधन तो होता ही है, साथ में सुनने वाले की जो प्रतिक्रिया होती है, वह निश्चय ही उत्तम नहीं होती, अतः उसके भी कर्म बँधते हैं। मराठी भाषा में कहा है
बोलावें बहगोड प्राण्यां बोलावें बह गोड ॥ध्र०॥
दुष्ट दुरुक्ति दुर्वचनाची, टाकु निधावी खोड ॥प्राण्या०॥ पद्य में प्राणी को सीख दी गई है-हे आत्मन् ! तुम बोलो ! किन्तु अपनी बोली में मिठास रखो, कड़वापन मत आने दो ! अन्यथा दूसरों का दिल दुखेगा। तुम्हारे कटुशब्द सुनने वाले के हृदय पर ऐसे घाव कर देंगे जो कभी मिट नहीं सकेंगे। दुर्वचनों का परिणाम
भगवान महावीर ने दुर्वचनों के दुष्परिणामों के विषय में कहा है
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