Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जीवन विकास का सोपान-अनुशासन
१५१
A
अजर-अमर है, वह यह भी नहीं मानता है। उसका इस सत्य की ओर ध्यान ही नहीं जाता। अज्ञानी पुरुष तो यही समझते हैं कि जो कुछ भी है, यही जीवन है और इसमें जितना सांसारिक सुख भोग लिया जाये, भोग लेना चाहिये । यह विचार करता हुआ मानव विषय-भोगों की ओर अधिकाधिक उन्मुख होता है, किन्तु उनसे उसे तृप्ति नहीं मिल पाती, क्योंकि तृष्णा या लालसा एक ऐसी कभी न बुझने वाली आग है जो सदा जलती रहती है और जब तक यह जलती है, जीव को शांति प्राप्त नहीं होती। इसीलिये महापुरुष कहते है कि सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय भोग-तृष्णा का निरोध करना है। जो भव्य प्राणी इसको समझ लेते हैं वे तनिक-सा निमित्त मिलते ही भौतिक सुखों को ठोकर मार देते हैं। यह तभी, जब श्रद्धा संपन्नता प्राप्त होगी।
विनय की महिमा अनुशासन का दूसरा अंग है-विनय । जनशास्त्रों में बिनय की महिमा अद्वितीय बताई गई है
___ 'धम्मस्स विणओ मूलं' धर्म का मूल विनय है । साधना का प्रत्येक आचार-विचार विनय पर अवलंबित होता है। जिस प्रकार मूल के कमजोर हो जाने या उखड़ जाने पर वृक्ष नहीं टिक सकता, उसी प्रकार विनय के दूषित या लोप हो जाने पर धर्म नहीं रहता। विनय ही धर्म का प्राण है और एकमात्र सहायक है । कहा भी है
या
विणओ सासणमूलं विणीओ संजओ भवे ।। विणयाउ विप्प-मुक्कस्म कुओ धम्मो कुओ तवो ॥
-हरिभद्रीय आव. नियुक्ति १२-१६
अर्थात् विनय जिनशासन का मुल है । विनीत पुरुष ही संयम-वान होता है। जो विनय से हीन है उसमें धर्म कहाँ और तप कहाँ ?
वस्तुतः विनय के अभाव में अगर व्यक्ति धर्म को पाना चाहे तो बह आकाशकुसुमवत् साबित होगा । यद्यपि अन्य समस्त सद्गुण जीवन के आभूषण हैं, किन्तु विनय के न होने पर वे प्रकाश में नहीं आ सकते । विनय ही उन सब में चमक लाता है। विनयवान व्यक्ति ही सर्वत्र सम्मान का पात्र बनता है और आपके चित्त को आकर्षित करने की क्षमता रखता है।। मुहम्मद साहब ने अपनी एक हदीस में लिखा भी है
'मन या हर मुरिफको या हर मुल खैरे कुल्ल हो।' जिसने विनय को अपना लिया, उसने समस्त अन्य गुणों और भलाइयों को अपना लिया।
महात्मा आगस्टाइन ने कहा-'धर्म का पहला, दूसरा, तीसरा यहाँ तक कि सभी लक्षण एक मात्र विनय में निहित हैं।'
___ ज्ञानप्राप्ति के लिए विनय की अनिवार्य आवश्यकता होती है। अनुशासन एवं विनय को प्रगट करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है
विनय-समाधि चार प्रकार की है, यथा-१. गुरु द्वारा शिक्षित होकर उनके सुभाषित वचनों को सुनने की इच्छा करे, २. गुरु के वचनों को सम्यक् प्रकार से समझे, ३. थ तज्ञान की पूर्णतया आराधना करे और ४. गर्व से आत्मप्रशंसा न करे।
वास्तव में जो शिष्य अपने गुरु से कल्याणकारी शिक्षा को प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है, शिक्षा प्राप्त करके जीवन में उतारता है और उतने पर भी अपने ज्ञान का तनिक भी गर्व नहीं करता वही
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