Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचारः परमो धर्मः
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पहले मन में विचार आते हैं, उसके पश्चात वे वाणी द्वारा उच्चरित होते हैं और उसके बाद आचरण में व्यवहृत होते हैं । जब तक विचार कार्य रूप में नहीं आते अर्थात् आचरण में नहीं लाये जाते तब तक उनका कोई महत्व नहीं माना जाता। इसीलिए शास्त्रकारों ने आचार को महत्त्व दिया है। यद्यपि रत्नत्रय में पहले सम्यग्दर्शन, फिर सम्यक्ज्ञान और उसके बाद सम्यक् चारित्र का नम्बर है। सम्यग्दर्शन से ज्ञान पवित्र होता है और ज्ञान के साथ विवेक मिलकर आचरण को शुद्ध और सम्यक बनाते हैं। तो पहले सम्यग्दर्शन यानी श्रद्धा होती है और उसके बाद सम्यक् ज्ञान । किन्तु इन दोनों के होने पर भी अगर चारित्र न रहा तो दोनों की कोई कीमत नहीं है।
आप कहेंगे ऐसा क्यों? वह इसलिए कि जिस तरह आप मकान बनवाते समय कम्पाउण्ड, दरवाजा बम्भे और दीवाले सभी कुछ बनवा लेते हैं, किन्तु छत नहीं बनाई गई तो वह मकान क्या आपको सर्दी, गर्मी और बरसात से बचा सकेगा? नहीं, छत के अभाव में आपके मकान की दीवारें, खिड़कियाँ और रास्ते किसी काम नहीं आयेगे।
इसी प्रकार मन से विचार कर लिया, वाणी से उसको प्रकट भी किया किन्तु जब तक उसे आचरण के द्वारा जीवन में नहीं उतारा तो विचार और उच्चार से क्या लाभ हुआ? कुछ भी नहीं। आत्म-कल्याण के लिए आचरण आवश्यक ही नहीं, अनिबार्य भी है।
आचरण का लक्ष्य
నాలి
एक गाथा आपके सामने रखता हूँ, जिसे बड़ी गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है। गाथा इस प्रकार है
अंगाणं कि सारो, आयारो तस्स कि सारो। अंगहो गत्थो सारो, तस्स वि परूवणा शुद्धी॥
व्यावहारिक भाषा में अंग शरीर को कहते हैं। पारमार्थिक दृष्टि से यहाँ अंग का अर्थ द्वादशांग रूप वाणी से है । तो यहाँ गाथा में प्रश्नोत्तर के द्वारा अंग और उसकी उत्तरवर्ती बातों का सार पूछा गया है। प्रश्नकर्ता ने पहला प्रश्न पूछा है कि 'अंगाणं किंसारो' अर्थात् द्वादशांग वाणी का क्या सार है ? उत्तर दिया गया है-'आयारों इनका सार आचरण है। अंगों का सार आचरण करना बताया है।
फिर प्रश्न पूछा गया है-उसका भी क्या सार है ? तो उसका उत्तर दिया गया है-भगवान के फरमाये हुए जिन आदेशों को पढ़ा, श्रवण किया, धर्म शास्त्रों से जाना, उस पर चिन्तन करते हुए उसके पीछे-पीछे चलना यानी अनुसरण करना। फिर प्रश्न पूछा गया है---उसका भी सार क्या है ? तो उत्तर मिला-प्ररूपणा अर्थात् परोपदेश देना । क्योंकि हम भगवान की आज्ञानुसार चले तो अपने लिए ही कुछ किया किन्तु उससे जनता को क्या लाभ मिला? अतः भगवान की आज्ञाओं को औरों के हृदय में बिठाना तथा उन्हें सरल ढंग से समझने के लिए उपदेश देना। अगर एक व्यक्ति स्वयं सन्मार्ग पर चलता है, तो वह अच्छा ही है पर कुमार्ग पर जाने वाले अन्य व्यक्ति को भी सन्मार्ग पर ले आता है तो वह बड़े पुण्य का कार्य है।
आप देखते हैं कि सन्त मुनिराज सदा एक गांव से दूसरे गाँव में जाते हैं। वह क्यों? क्या उन्हें लोगों से पैसों की वसूली करनी है, अथवा सेठ साहूकारों से कोई जागीर लेनी है ? नहीं, वे केवल इसलिए विचरण करते हैं कि जो व्यक्ति धर्म क्या है यह नहीं जानते और शास्त्र या उसकी वाणी क्या होती है, यह नहीं समझते तो उन्हें इन बातों की जानकारी दी जा सके। ऐसा किये बिना धर्म का प्रचार और प्रसार नहीं हो सकता । तो आचरण का सार प्ररूपणा अर्थात् अज्ञानियों को सदुपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने में है।
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