Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आनन्दमूति : आचार्य श्री आनन्दऋषि
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संस्कार जिस परिवार में आपने जन्म लिया था वह धर्मों में श्रेष्ठ जैनधर्म के रंग से रंगा हुआ था ही, फिर उच्चकोटि के महापुरुषों का जब कभी ग्राम चिचोड़ी में आगमन होता तो आपके पिताश्री एवं माता सन्तचरणों में बैठकर धर्मवचन का लाभ अवश्य उठाया करते । धीरे-धीरे आपके मन में धर्मरुचि जागी और आपने सामायिक पाठ आदि सीखना प्रारम्भ कर दिया। "होनहार विरवान के होत चीकने पात" के अनुसार आप पर धर्म का रंग चढ़ने लगा।
वैराग्य सन्तों के प्रवचन सुनकर एवं पिताजी का देहावसान देखकर उन्हें संसार से विरवित होने लगी और अन्तरात्मा ने यह निश्चय किया कि धर्म ही एकमात्र हमारा साथी है और कोई नहीं। फिर क्या था यही भावना दृढ़ होते-होते वैराग्यांकुर फूट पड़ा। फिर तो हर समय धर्म-चिन्तन एवं नवकारस्मरण में ही व्यतीत होता व बच्चों में खेलने और किन्हीं अन्य कामों में मन न लगता। अब तो मन यही कहता कि ऐसा महापुरुष मिले जिनके चरणों में सर्वस्व अर्पण कर सदा के लिए सूखी हो जाऊँ, अनाथ से सनाथ बन जाऊँ।
दीक्षा
आखिर वह क्षण आ पहुँचा, जिसकी मन में चिरकाल से भावना हो रही थी । अर्थात् परम भाग्य से आचार्य श्री रत्नऋषिजी अपनी शिष्यमंडली के साथ पधारे, उनके पावन चरणों में बैठकर प्रभुवाणी सुनने का परम अवसर प्राप्त हुआ और मन ने यही निश्चय किया कि इन्हीं के चरणों में रहकर अपने कल्याण का मार्ग स्वीकार करूँगा। मन के निश्चय को गुरुचरणों में व्यक्त किया, गुरुदेव ने सुना और कहा परिवार से आज्ञा प्राप्त करो। आपने एकमात्र अपनी माता से आज्ञा माँगी, किन्तु माता की ममता, ममता ही होती है, बहुत ही कठिनता से आज्ञा ली और फिर आपने आचार्य श्री रत्नऋषिजी के पावन चरणों में १९७० में मिरी ग्राम में भागवती दीक्षा ग्रहण की।
शिक्षा दीक्षा लेकर आप साधना के पथ पर अग्रसर होने लगे। पूज्य गुरुवर्य की सेवा ही इनका मुख्य व्रत था, इसके साथ आपश्री को शास्त्रों का अभ्यास भी करवाया जाने लगा। शनैः-शनैः आप शास्त्रज्ञान में प्रवेश पाने लगे। गुरुओं का शुभाशिष एवं सेवाव्रत से आपकी बुद्धि का विकास होने लगा और ज्ञानपिपासा जागी, जन्मान्तर से पीड़ित एवं बुभुक्षित मानसहंस को ज्ञान रूपी मोती प्राप्त होने लगे। साथ ही अन्य भाषा जैसे कि प्राकृत, उर्दू, हिन्दी, संस्कृत, फारसी एवं आंग्ल भाषा का बोध प्राप्त करते रहे । परिणामतः आप उपरोक्त सभी भाषाओं में अपने विचार अनवरतगति से व्यक्त करते हैं।
___ कार्यक्षेत्र आपश्री की योग्यता प्रगट होने लगी। आपने यों तो कई भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त की किन्तु आपका प्राकृत भाषा से विशेष लगाव रहा, कारण जैन वाङमय प्राकृत भाषा में है और इस समय वह पिछड़ी हुई है। ऐसा समझकर आपने जिस प्रकार प्रभुवाणी का प्रसार हो वैसा कार्य करना चाहा । फलस्वरूप आप प्राकृत भाषा के विकास के लिए विद्यामन्दिरों की प्रेरणा देने और शास्त्रज्ञान के प्रचार करने के लिए कटिबद्ध हुए। विद्वानों का सहयोग मिलने लगा, उदारमना सेठों के सहयोग से आपने प्रायः ५० से अधिक विद्यामन्दिरों की स्थापना करवाई और वर्तमान में पाथर्डी विद्याश्रम सबसे बड़ा और महान विद्याकेन्द्र बना। जिसमें साधु-साध्वी एवं श्रावकगण बड़ी रुचि से विद्या-अध्ययन करने लगे और परीक्षाएं देने लगे । आज यह विद्यालय निरन्तर प्रगति पथ पर बढ़ता जा रहा है। आप प्राचीन साहित्य पर अनुसन्धान एवं प्राकृत भाषा के अध्ययन में ४० वर्षों से निरन्तर ही लगे हुए हैं । साथ-साथ संघ की एकता बनी रहे, प्रभु
जा
आचार्यप्रवर अभिनन्दन श्रीआनन्दग्रन्थामा
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