Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी का अंतरंग चित्र : शब्द पटल पर ८५
आचार्य श्री और औदार्य
उदारमना आचार्य ही अर्हणा के पात्र होते हैं। आचार्यों ने ही कहा है कि आत्मगर्हणा करो और अर्हणा के योग्य बनो । जो आत्मगर्हणा नहीं कर पाता, वह अर्हणा को भी नहीं कर पाता । गर्हणा दुष्कृत्यों की की जाती है । किसी के द्वारा की गई आत्म-गर्हणा को उदार मना आचार्य ही सुन सकते हैं। किसी की आत्मगर्हणा को सुनकर उसे समझना और पचाना उदारमना आचार्य ही जानते हैं। किसी की आत्मगर्हणा को प्रगट करने वाला आचार्य आचार्य पद की अर्हणा के अयोग्य माना है ।
श्रद्धेय आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब का अन्तरंग औदार्य से ओत-प्रोत है । आचार्य श्री और कषाय विप्रमुक्तता क्रोधी और अभिमानी, मायावी और लोभी आचार्य स्वयं संघ को उन्नत बनादे यह विचार उपहासास्पद है । अपने और दूसरों पर आने वाले क्रोध को न आने देना और आ जाए तो उसे उपशांत तथा क्षय कर देना आचार्य का एक उत्तरदायित्व है । अपनी शक्तियों और विभूतियों पर, तप और जय पर, स्थान और सम्मान पर, ज्ञान और व्याख्यान पर, आचार और विचार पर सुधार और प्रचार पर अंग और रंग पर, अहं करने का अर्थ ही होता है कि क्या आचार्य पद और अहं एक साथ निभ पायेंगे ? आचार्य चतुर होता है, मायावी नहीं । तथा छल अपराध है। मायावी का कोई अपना नहीं होता । अतः समूचे संघ को अपना बना लेने वाला आचार्य मायावी नहीं हो सकता । पद और प्रतिष्ठा के लोभ से दूर रहने वाले को ही आचार्य पद के लिए चुना जाता है । "मुझे शिष्य बना लो " शिष्य बनने से पहले पुनर्विचार करो । शिष्य के लोभी आचार्य
चातुर्य एक कला है और माया
कहने वाले से भी कहा जाता है कि पुनर्विचार की प्रेरणा नहीं दे पाते ।
श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब क्रोध और अहं, माया और लोभ को बहुत पीछे छोड़कर चलने वाले आचार्य हैं । आचार्य श्री का अन्तरंग कषाय विप्रमुक्त है, ऐसा कहने में अतिशयोक्ति क्यों होगी ?
आचार्य श्री और संघ
आगे चलने वाले को अगुवा कहा जाता है। किसे आगे चलने देना और किसके पीछे-पीछे चलना यह सोचना संघ का उत्तरदायित्व है । संघ जिसे आगे चलने को कहें उसे आगे चलना ही चाहिए क्योंकि संघ का आदेश अवहेलनीय नहीं होता । जब समूचा संघ जिसके साथ-साथ अथवा पीछे चलने को तैयार है उसे आगे चलने में डर भी क्या है ? अगुवा को आपत्ति में डालकर पीछे खिसक जाने वाला संघ ही नहीं हो सकता। संघ वही हो जो विपद आने पर अपने अगुवा को बचाने के लिए अगुवा के पीछे से हटकर स्वयं आगे आ जाए । अगुवा को बचा लेना और कहना कि हमारे अगुवा ने हमें बचा लिया । आचार्य के प्रति संघ का यह उत्तरदायित्व बहुत गौरवपूर्ण है। संघ के लिए आचार्य और आचार्य के लिए संघ पूर्णतया समर्पित होते हैं । संघ की भावना ही शब्द बनकर आचार्य श्री के मुख द्वारा निकलती है । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आचार्य ही संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी महाराज साहब का अन्तरंग संघ के साथ है और संघ का अन्तरंग व बहिरंग आचार्य श्री के अन्तरंग के साथ है ।
आचार्यश्री की ज्ञानोपासना
ज्ञान देवता के उपासक और प्रचारक आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब ने ज्ञान-देवता के चरणों में स्वयं को पूर्णतया समर्पित कर दिया । न्याय, दर्शन, व्याकरण, आगमों की निष्णातता के साथ सात-सात भाषाओं की विद्वत्ता प्राप्त करना ज्ञान देवता की सच्ची सेवा है । स्थान-स्थान पर विद्यामन्दिरों की स्थापना में प्रेरणा और सहयोग करना ज्ञानदेवता के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा प्रगट करना
Jain Education International
元
कम
फ्र
AAAAAJAL
आयार्यप्रवरुप अभिनंदन आआनन्दन ग्रन्थ आयायप्रवर अभिनन्द
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org