Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्री आनन्द अभिनन्दः प्रभ श्री आनन्द
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[] डा० अच्युतानन्द घिल्डियाल एम. ए., पी-एच. डी [ व्याकरण एवं दर्शनशास्त्र के विद्वान, अनेक ग्रंथों के लेखक ]
धर्म के प्रचार-प्रसार में
आचार्य श्री श्रानन्दऋषि जी का योगदान
अति प्राचीन काल से देखा गया है कि मानव जहाँ अपने जीवन को सुखमय बनाने में प्रयत्नशील रहा है वहाँ दूसरी ओर मानव ने अपने चिन्तन के माध्यम से यह भी अनुभव किया कि शारीरिक सुखों की उपलब्धि ही सब कुछ नहीं है । अतः ऐसी स्थिति में दार्शनिक दृष्टि द्वारा ऋषि-मुनियों ने जगत के कल्याण के लिए वास्तविकता को जगत के समक्ष रखा। उन दर्शनशास्त्र के विचारकों ने अपने चिंतन के द्वारा जो अनुभूतियाँ की एवं अति सूक्ष्म दृष्टि से जो देखा उसे अपने विचार देकर व्यक्त किया है ।
आज के युग में धर्म के नाम से आधुनिक लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं । धर्म को लोग एक सम्प्रदाय मानने लगते हैं, किन्तु वास्तव में वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । धर्म वे पवित्र सिद्धान्त हैं, जो मनुष्य को मनुष्य के निकट लाकर मानवता सिखाते हैं । धर्म मानव से उसकी त्रुटियों को दूर करा कर एवं उसकी हिंसकवृत्तियों को दूर करके सही रूप में मानव बने रहने की शिक्षा देता है । आज संसार में सर्वत्र जो अशान्ति, अराजकता, असन्तोष और भ्रष्टाचार फैला है उसे एक मात्र धर्म ही दूर कर सकता है । जिस धर्म ने अपने अनुयायियों को सहिष्णुता, त्याग, प्रेम, समता मानवता, नैतिकता, सत्यता एवं अपने समान ही दूसरों के सुख-दुखों को अनुभव करने की शिक्षा न दी हो वह वस्तुतः धर्म नहीं अपितु एक स्वार्थ है धर्म के माध्यम से ही मानव में सद्गुणों का उदय होता रहा है और हो सकता है ।
धार्मिक नियमों और सिद्धान्तों का प्रवर्तन जब भी त्यागी, महान्, आदर्श और मानवतावादी महात्माओं द्वारा होगा तभी जनता पर उसका अच्छा एवं अनुकरणीय प्रभाव पड़ेगा । धार्मिक नियमों का प्रवचन विद्वान् अधिकारी ही दे सकते हैं क्योंकि उनके क्रिया-कलापों का प्रभाव सामान्य जनता पर भी पड़ता है । सुधारकों और पथप्रदर्शकों की समाज के कुछ स्वार्थी लोगों ने अनेक प्रकार की आलोचनाएँ एवं उनके विरुद्ध जनमत भी तैयार करने की चेष्टा की, किंतु सदा से उन महान् धर्मसंस्थापकों की ही अपने सही सिद्धांतों के कारण विजय हुई है । उनके सिद्धांत किसी समुदाय विशेष की स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं होते अपितु मानवता की रक्षा के लिये होते हैं ।
इस प्रकार की शिक्षा जैनधर्म के महान् त्यागी आचार्यों के द्वारा भारत में शताब्दियों से दी जा रही है। निष्पक्ष भाव से यह तो मानना ही पड़ेगा आज भी जितनी त्याग की भावनायें जैनधर्म के आचार्यों में पाई जाती हैं वैसी किसी अन्य में दृष्टिगत नहीं होती हैं ।
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भारतवर्ष के प्रायः अनेक स्थानों पर जैनधर्म के आचार्यों के योगदान से ही जैनधर्म का प्रसार और प्रचार होता आ रहा है । सदा से यह देखा गया है कि "सज्जनों की विभूतियाँ परोपकार के लिए ही होती हैं" (परोपकाराय सतां विभूतयः) । उपकारक त्यागी महात्माओं का जन्म जगत के कल्याण के
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