Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर आभनआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द
श्रीआनन्द
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भी देते हैं, पर उन्हें ग्रहण करने वाले बिरले ही होते हैं। उपदेश वे ही ग्रहण करते हैं, जो भव्य जीव होते हैं । अभव्य को उपदेश नहीं लगता।
. भव्य और अभव्य में क्या अन्तर हैं ? जो भव करके मोक्ष में जाने वाला है, वह भव्य और जो भव करके भी मोक्ष में नहीं जा सकता, वह अभव्य कहलाता है।
तर्क करने वाले कहते हैं-वीतराग प्रभु का उपदेश साधारण सन्त या महापुरुष का उपदेश नहीं है। उनके उपदेश का असर क्यों नहीं होता?
एक बार मध्यप्रदेश के सुवासरामण्डी नामक गाँव में हमारा प्रवचन चल रहा था। उस समय एक सिख भाई ने प्रश्न किया 'महाराज' आपका उपदेश तो बहुत ही अच्छा और आत्मा को तारने वाला है, पर आपके शिष्य उसे अमल में नहीं लाते, इसका क्या कारण है ?'
__मैंने कहा-'भाई, हमारा फर्ज है उपदेश देना और आप लोगों का फर्ज है उसे अमल में लाना। हम अपना फर्ज पूरा करते हैं, अब आप उसे अमल में लाते हैं या नहीं, यह आपकी भावनाओं पर तथा आपकी भविष्य में बंधने वाली गति पर निर्भर है। जिनकी गति शुभ होने वाली होती है, उन्हें अधिक उपदेश की भी आवश्यकता नहीं होती और वे उपदेश के दो शब्दों को ग्रहण करके भी चेत जाते हैं। इस प्रकार सन्तों का कर्तव्य मार्गदर्शन करना है पर सुनने वाले अगर उस मार्ग पर नहीं चलते तो यह दोप उनका है, उपदेश का नहीं। इसी बात को स्पष्ट करने वाला एक श्लोक है
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् ? नोलुकोऽध्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य कि दूषणम् ? धारा नैव पतंति चातकमुखे मेघस्य कि दूषणम् ?
सबोधात् द्रवते न दुष्टहृदयं बोधस्य कि दूषणम् ? मैंने उस सिख भाई को इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट किया कि-'देखो भाई ! जब वसन्त ऋतु आती है, हरएक वृक्ष में कोंपलें फूटती हैं, नवीन पत्ते आते हैं, किन्तु केर का पेड़ ऐसा होता है कि उसमें एक भी पत्ता नहीं लगता, तो इसमें वसन्त ऋतु का क्या दोष है ? इसी प्रकार सूर्य का उदय होते ही संसार के समस्त प्राणी अपने मुंदे हुए नेत्र खोलते हैं और अपने-अपने कार्य में संलग्न हो जाते हैं, किन्तु उल्लू एक ऐसा जीव है जो सूर्योदय होते ही अपनी आँखें बन्दकर लेता है, उसकी ओर देखता ही नहीं। तो बताओ इसमें सूर्य का क्या दोष है ? उसका काम प्रकाश करना है और उसने अपना कर्तव्य पूरा किया अर्थात् प्रकाश फैलाया पर कोई उससे लाभ न उठाये तो वह क्या करे ?
सूर्य के समान ही मेघ भी सम्पूर्ण पृथ्वी पर समान वृष्टि करता है। अपनी ओर से वह भूमि के प्रत्येक स्थान को सरस बनाने और प्रत्येक प्राणी को आह्लादित करने का प्रयत्न करता है, किन्तु अगर चातक के मह में जल की बूंद न गिरे तो मेघ क्या करे ? चातक केवल स्वाति नक्षत्र का जल ही लेता है, दूसरा नहीं और इस कारण प्यासा मरता रहता है, पर इसमें मेघ का क्या दोप है ? कुछ भी नहीं। इसी प्रकार सन्त पुरुष सभी प्राणियों को एक-सा उपदेश देते हैं, उन्हें समझाने का प्रयत्न करते हैं तथा सन्मार्ग सुझाते हैं। जबकि भव्य प्राणी थोड़ा-सा सुनकर भी तुरन्त सावधान होकर अपनी दिशा बदल लेते हैं, अभव्य और कुसंस्कारी व्यक्तियों के हृदय पापों के परिणामों को सुनकर भी भयभीत नहीं होते, द्रवित नहीं होते तो सद्बोधन और सदुपदेशों का क्या दोष है ? श्री भर्तृहरि ने सत्य ही कहा है
प्रसह्य मणि मुद्धरेन्मकर वक्त्र दंष्ट्रांकुरात्समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलमिमालाकुलम् भुजंगमणि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत् ।
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