Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म के प्रचार-प्रसार में आचार्य श्री आनन्दऋषि जी का योगदान ११३ लिए ही होता है । उनका अपना व्यक्तिगत कोई स्वार्थ ही नहीं होता है । वे वस्तुतः दूसरों के उपकार के लिए ही जन्म लेते हैं ।
आचार्य जी का प्रारम्भिक जीवन
इस प्रकार के महात्माओं में पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज की भी गणना की जाती है। वास्तव में जैनधर्म के प्रसार और प्रचार के लिये आचार्य जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन ही दे दिया हैं । आचार्य आनन्द ऋषि जी का प्रारम्भिक जीवन भी एक पवित्र महात्मा के समान रहा हैं । जिन उपकारी पुरुषों को भविष्य में जगत का अपने कार्यों एवं कृत्यों द्वारा कल्याण करना है उनके बाल्य काल के क्रिया कलापों में वह झलक स्पष्ट दिखाई देती है । आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज का बाल्यकाल भी सर्वथा इसी प्रकार का दृष्टिगत होता है । अच्छे बुरे लोगों के संसर्ग में आकर वस्तुतः मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार भले-बुरे गुण-अवगुणों को ग्रहण कर लेता है । लेकिन वास्तव में सन्त अपनी सहज प्रवृत्तियों के कारण सभी के सद्गुणों को ग्रहण करता है ।
महाराष्ट्र प्रदेश का सदा से यह सौभाग्य रहा है कि उसने सभी धर्मों के संतों को जन्म दिया है । आचार्य आनन्द ऋषि महाराज की भी जन्मभूमि सन्तप्रसूता भूमि 'महाराष्ट्र' ही है । इस प्रकार के धर्मसुधारक, समाजसुधारक धर्म संरक्षक अति प्राचीनकाल से इस पृथ्वी पर मानव कल्याण के लिये जन्म लेते रहे हैं और लेते रहेंगे ।
आचार्य आनन्द ऋषि महाराज पर भी अपने से पूर्व के महात्माओं का अच्छा प्रभाव पड़ा और इन्होंने उन्हीं की परम्पराएँ अपनाकर जैनधर्म की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया । महात्मा बुद्ध को जिस प्रकार रुग्णव्यक्ति वृद्धव्यक्ति और मृतव्यक्ति के दृश्य को देखकर संसार के प्रति घृणा एवं दुखत्रय से छुटकारा पाने की प्रेरणा मिली ठीक इसी प्रकार आचार्य आनन्द ऋषि जी पर भी अपने पिता की मृत्यु का भी प्रभाव पड़ा और वे श्रमण संस्कृति के पोषक बनकर समाज के समक्ष आये । इस प्रकार की घटनाओं से प्रभावित होकर आचार्य जी ने आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए जैन धर्म के सिद्धान्तों का अध्ययन कर उनको कार्य रूप में प्रयुक्त कर दूसरों को अपनी अनुभूति द्वारा लाभान्वित किया । श्रमण परम्पराओं का प्रतिपालन करने कराने में आनन्द ऋषि जी का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । श्रमण संस्कृति की रक्षा, उसके परिपोषण के लिये पूज्य आचार्य आनन्दऋषि जी ने अपना समस्त जीवन लगा दिया है।
आचार्य श्री आनन्द ऋषि जो की विद्वत्ता और विद्याप्रेम आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज की बाल्यकाल से ही बहुमुखी प्रतिभा रही है। बहुत छोटी ही • प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में वे पारंगत हो चुके थे । प्रायः यह देखा जाता है कि यदि सुधारक उपदेशक, पथप्रदर्शक और गुरु योग्य व्यक्ति होता है तो उसकी विद्वता का दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है
अवस्था
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एवं तभी उसकी प्रतिभा का महत्त्व समाज स्वीकार करता है के क्ष ेत्र में कुछ दे सकता है। जैनधर्म के प्रसार और प्रचार के
जो स्वयं परिपूर्ण है, वही दूसरों को ज्ञान लिए आचार्य आनन्द ऋषि जी ने भारतीय
प्रायः सभी प्रान्तीय भाषाओं का पूर्ण ज्ञान भी प्राप्त किया है। मराठी, गुजराती, राजस्थानी, उर्दू, हिन्दी संस्कृत एवं प्राकृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं का आचार्य जी को पूर्ण ज्ञान है । इसप्रकार का परिपूर्ण व्यक्ति ही अपने ज्ञान से दूसरों का अज्ञान दूर कर सकता है ।
आचार्य आनन्द ऋषि जी जैन धर्म के पारंगत विद्वान तो हैं ही इसके साथ-साथ अच्छे वक्ता, कुशल लेखक, मनोवैज्ञानिक, समुद्रवत गम्भीर, सच्चे त्यागी, विद्याप्रेमी, धर्म- धुरंधर, तप से पुनीत, वाक्साधक, धर्म संरक्षक, दया से द्रवित एवं परोपकारी हैं। अपना जीवन उन्होंने दूसरों के कल्याण के निमित्त ही धारण किया हुआ है । आपके पुनीत प्रवचनों से श्रद्धालु आनन्द विभोर हो जाते हैं ।
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आचार्य प्रवा श्री आनन्द अन्य 99 श्री आनन्द ग्रन्थ
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