Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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0 फकीरचन्द मेहता [प्रसिद्ध उद्योगपति, समाज सेवी तथा स्थानकवासी समाज के अग्रगण्य]
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महाराष्ट्र के मान गौरव
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आचार्यश्री को पिछले ४५ वर्षों से नमन, वन्दन कर रहा हूँ । स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। मेरा बचपन व उनकी जवानी की साधना, यह था मेरा उनसे सम्पर्क ! पण्डित मुनिश्री आनन्द ऋषि जी महाराज का खानदेश में वरणगांव जव भी पदार्पण होता, हम लोग उनके साथ ग्रामानुग्राम घूमा करते थे। सुबह या दोपहर में उनके प्रवचन करवाते थे । मराठी भाषी इस क्षेत्र में उनके मुखारविन्द से जब सन्त तुकाराम के मधुर अभंग प्रस्फुटित होते थे तब जन समुदाय मन्त्रमुग्ध हो जाता था।
एक सिद्धहस्त प्रवचनकार होने के नाते किसी भी विषय को इन्होंने बड़ी शांति से, सरल भाषा में समझाने का यत्न किया है । महाराष्ट्र के कीर्तनों की इन पर गहरी छाप है।
यह सन्त प्रवर महाराष्ट्र से विहार करके मालव और राजस्थान में पधारे। इन पर व्यावर में और भी जिम्मेदारी का भार आया । पाँच सम्प्रदायों के यह आचार्य बने । पत्र-व्यवहार की बड़ी सूक्ष्मता और उनकी नौंद आदि कार्य इनके व्यवहार की विशेषता है। बुद्धि के मेधावी होने से कभी भी किसी भी बात को भुलते नहीं । अपनी शिष्य-मण्डली को प्रथम आहार करवाने के बाद में इनका आहार होता है। महाराष्ट्र की सन्त भूमि में उन महान् संतो की शृखला में यह अग्रसर हैं।
इनके दर्शनों का प्रसंग देश के कई प्रान्तों में आया । विशेषकर पंजाब, जम्मू और हरियाणा में जहाँ आचार्यश्री का पदार्पण होता, उनसे बातचीत होती तो पिछली स्मृतियाँ ताजी हो जाती । मुझे फकीरचन्द भाऊ के नाम से वह सहज में सम्बोधित करते और मारवाड़ी मिश्र मराठी भाषा में वार्तालाप होता रहता था। राजस्थान में श्रमण-संघ के आचार्यपद से जब वे सम्मानित किए गए तो हृदय गद्-गद् हो आया। सोचता हूँ, इन सन्त के साथ सहज में बचपन में घूमता रहता था, विनोदपूर्ण बातें कर लिया करता था। अब वह अवसर मुझे किस सौजन्य से मिलेगा। फिर भी जब दर्शनों का लाभ मिला, देखा तो, व्यवहार में कुछ भी परिवर्तन नहीं था। वही आवाज, वही सम्बोधन और मधुर व्यवहार ।
नागपुर चातुर्मास के बाद मित्रों की विनती पर आचार्यश्री का सन्त समूह सहित भुसावल पधारने का तय हुआ। दीक्षा महोत्सव की तैयारियाँ होने लगीं । सोचा, आचार्य भगवान को ७५ वर्ष होने जा रहे हैं, दीक्षा के ६१ वर्ष हो रहे हैं, गुड़ी पड़वा का मुहूर्त है । मन में आया ऐसे वक्त का फायदा लेकर आचार्य महाराज की सेवा में अभिनन्दन अंजलि अर्पित करूँ।।
अकोला से मलकापुर होते हुए बोदवड़ पधारे । रात्रि में मालुम हुआ कि बोदबड़ के एक भाई दीक्षा लेना चाहते हैं। और अब आचार्यश्री १३ मार्च ७४ को भुसावल नहीं पधारेंगे। मित्रों सहित रात्रि में ही बोदवड़ जाना पड़ा । आचार्य श्री को भुसावल पधारने की याद दिलाई। बड़े असमंजस में मामला पड़ गया । रात बीततीं गई । रात्रि में २॥ बजे तय हुआ कि आचार्यश्री प्रथम भुसावल का आयोजन सफल करेंगे । दिल श्रद्धा से भर आया और दूसरे दिन सबेरे भुसावल की ओर प्रस्थान हुआ। साधार
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