Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि का प्रवचन- विश्लेषण
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इन्सान जब इन्सानियत को भूलकर दानव बनता है, अनाचार जब इन्सान की मलिन नसों में बढ़ने लगता है और भेद-भाव की ज्वाला पावन धरती के समुज्ज्वल तत्त्वों को भस्मसात करने के लिए आतुर हो उठती है तभी युगपुरुष श्रमण संघ के सिरमौर आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषि जैसे तपस्वी इस धरातल के मलिन प्रांगण में आते हैं और पीयूष - परिपूरिता वाणी से मानव की मटमैली विचारशून्य कुभावना की परिशुद्धि करते हैं । निश्चयतः ये साधक परम प्रभु के प्रतिरूप ही हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है
जब जब होय धरम के हानी । बाढ़हिं अमित असुर अभिमानी । तब तब घर प्रभु मनुज सरीरा । हहिं सदा सज्जन दुखपीरा ।
- रामचरितमानस
सन्तवाणी का प्रभाव अनेक चमत्कारों को जन्म देता है। मूढ़ विज्ञ बनता है, शठ सुधरने लगता है और पतित अपने अपराधों के लिए पश्चात्ताप कर उठता है ।
कल्पित भेद-भावना की दीवाल गिरने लगती है और इंसान अपनी कालिमा कलंकित विमूढ़ता के परित्याग हेतु कृतसंकल्प हो उठता है । काव्यकार के स्वर जो कभी शृंगार-रस-पूरित थे, सार्वभौमि कता के गीत गाने लगते हैं
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दो हुए तो क्या मगर हम एक ही घर के सेहन हैं, एक ही लौ के दिये हैं- एक ही दिन की किरन हैं, श्लोक के संग आयतें पढ़तों हमारी तख्तियाँ हैं, और होली-ईद आपस में अभिन्न सहेलियाँ हैं । मीर की गजलें उसी अन्दाज से हम चूमते हैं, जिस तरह से सूर के पद गुनगुनाकर झूमते हैं, मस्जिदों से प्यार उतना ही हृदय को है हमारे, हैं हमें जितने कि प्यारे मन्दिरों-मठ- गुरुदुआरे । फर्क हम पाते नहीं हैं कुछ अजानों-कीर्तनों में, क्योंकि जो कहतीं नमाजें है वही हरि के भजन में, ज्यों जलाकर दीप धोते हम समाधी का हैं चढ़ाते फूल वैसे ही मजारों
घिरा तम,
पर
यहाँ हम ।
- नीरज की पाती (पूर्ण आभार सहित )
उपाध्याय अमरमुनि के शब्दों में "परम पूज्य श्री आचार्यदेव श्रोता के सामने खुले मन के साथ स्पष्ट रूप से उपस्थित होते हैं, अतएव जो कुछ कहना चाहते हैं वह सहजभाव से कह जाते हैं। वाणी का बनाव- शृंगार और भावों का दुराव-छिपाव उनके प्रवचनों में नहीं मिलेगा, जो कुछ है वह सरल और सहज है । लगता है आचार्य श्री जिल्ह्वा से नहीं, हृदय से बोलते हैं। इसलिए उनकी वाणी मन पर सीधा असर करती है । भाव, विशेषतः सहजभाव ही वाणी का अन्तःप्राण है। वही प्रभावोत्पादक है । भावशून्य वाणी प्रभाव पैदा नहीं कर सकती। आचार्यश्री की वाणी में भाव हैं, इसलिए उसका प्रभाव भी पाठक के मन को निश्चित ही प्रभावित करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है । परमपूज्य श्री आनन्दऋषि आकृति से भी महासागर की तरह प्रशांत-कांत प्रतीत होते हैं और प्रकृति से भी । श्रद्धालु श्रोताओं को
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श्री आनन्द अन्थ
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