Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जीवनस्पर्शी प्रवक्ता आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि
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अर्थात् - गुणसम्पन्न व्यक्ति का वचन घृत - सिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी एवं मार्गदर्शक होता है, जबकि गुणरहित व्यक्ति का वचन तेलरहित दीपक की तरह एवं अंधकारपूर्ण होता है, इसलिए वह किसी को सुहाता नहीं ।
श्रमण संघ के महामहिम ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के प्रवचनों में जीवन का गहरा चिन्तन, मनन एवं अनुभवों का निचोड़ है। जैसा उनका नाम आनन्द है; वैसी ही उनकी वाणी श्रोताओं को आनन्ददायिनी प्रतीत होती है। उनके प्रवचनों में अन्तःकरण से सहजस्फूर्त उद्गार हैं, सहज स्वाभाविकता है, बनावट - सजावट नहीं
मेरे समक्ष इस समय आचार्यश्री के प्रवचनों के तीन भाग हैं। उनका नाम है-आनन्दप्रवचन | प्रत्येक प्रवचन में मानो अनुभवों का मेला-सा लगा हुआ है। देखिये पेट के लिए कितने पाप ? शीर्षक प्रवचन में उनके उद्गार कितने उद्बोधक हैं
"पेट की भूख मिटाने के लिए तो वह जितना भी धन प्राप्त करता है, कम समझता है, किन्तु आत्मा की भूख का उसे स्याल ही नहीं आता । न ही उस भूख को मिटाने का प्रयत्न ही करता है ।" " मानव अर्थप्राप्ति के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के इधर से उधर किसी भी दिशा में चल देता है विमान से उड़कर ऊपर जाने में नहीं चूकता और जैसी कि कोलार में सोने की ख़ान नीचे जमीन में है, उसमें उतरने में भी नहीं डरता । सारा डर और हिचकिचाहट तो उसे धर्म की दिशा में जाने से होती है ।"१
तृष्णाग्रस्त मानवों के जीवन पर करारी चोट करते हुए उन्होंने कहा -२ "जिस मनुष्य के हृदय पर तृष्णा का अधिकार होता है, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है। तृष्णा के वशीभूत होकर वह कर्तव्य के अन्तर को भूल ही जाता है, उसे लोकलज्जा की भी परवाह नहीं रहती । कभी-कभी तो उसकी तृष्णा ऐसा भयंकर रूप धारण कर लेती है कि वह घृणित से घृणित और नीच -से-नीच कृत्य करने को भी तैयार हो जाता है । यहाँ तक कि अपने स्वजनों और सम्बन्धियों की हानि और उनकी हत्या तक कर डालता है ।"
वैराग्य की झंकार को उजागर करते हुए आचार्यश्री कहते हैं- “जब तक मानव में राग-द्वेष रूपी विकार विद्यमान रहते हैं, तब तक वह वैराग्य परिणति का विकास नहीं कर पाता । परिणाम यह होता है कि वह सच्चे सुख का अनुभव नहीं कर पाता और दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता । क्योंकि राग और द्वेष की विद्यमानता में वह किसी को अपना स्नेही और किसी को अपना शत्रु अवश्य मानता रहेगा । जिसे शत्रु मानेगा, उससे किसी-न-किसी प्रकार का भय भी बना रहेगा । किन्तु वैराग्य में यह बात नहीं है । आत्मा में विरक्त भावना के होते ही उसे कोई भी अपना शत्रु नहीं दिखाई देता और इसके कारण भय की भावना उसके समीप भी नहीं फटकेगी ।" कितना सुन्दर विश्लेषण है वैराग्य वृत्ति का ।
सामाजिक जीवन का अनुभव रस उड़ेलते हुए वे कहते हैं-४ “हम यह देख चुके हैं कि परोपकार से हम अपना भी उपकार करते हैं। परोपकार का मूल प्रभाव अपने आपको, अपनी आत्मा को पवित्र करना होता है। महाज्ञानी और परमभक्त की तुलना में परोपकारी और नेक व्यक्ति रंचमात्र भी कम नहीं ठहरता, उलटे अधिक हो साबित होता है ।"
१ आनन्दप्रवचन भा० २, पृ० ३०, ३१,
२ वही, पृ० ६८ पृ० २५५
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श्री आनन्दन ग्रन्थ
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